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प्रह: धर्म: श्लोक ३४-३६
सूयगडो १ ३४. गिहे दीवमपासंता
पुरिसादाणिया णरा। ते वीरा बंधणुम्मुक्का णावखंति जीवियं ॥
गृहे
दीपमपश्यन्तः, पुरुषादानीयाः नराः । ते वीराः बन्धनोन्मक्ताः, नावकांक्षन्ति जीवितम् ॥
३४. गृहवास में दीप" (प्रकाश) न देखने वाले मनुष्य
(प्रवजित होकर) पुरुषादानीय११५ हो जाते हैं। वे वीर मनुष्य बंधन से मुक्त हो जीने की इच्छा नहीं करते ।
३५. शब्द और स्पर्श में अनासक्त तथा आरम्भ से अप्रति
बद्ध रहे । (धर्म का) जो यह स्वरूप कहा गया है, वह सब समयातीत-कालिक है । ११८
३५. अगिद्ध सद्दफासेसु
आरंभेसु अणिस्सिए। सव्वं तं समयातोतं
जमेतं लवियं बहु॥ ३६. अइमाणं च मायं च
तं परिणाय पंडिए। गारवाणि य सव्वाणि णिव्वाणं संधए मुणि॥
-त्ति बेमि॥
अगृद्धः शब्दस्पर्शयोः, आरंभेषु अनिश्रितः । सर्व तत् समयातीतं, यदेतद् लपितं बहु ।। अतिमानं च मायां च, तत् परिज्ञाय पंडितः । गौरवाणि च सर्वाणि, निर्वाणं संदध्यात् मुनिः ।।
-इति ब्रवीमि ॥
३६. पंडित मुनि अतिमान १९, माया और सभी प्रकार के
बड़प्पन के भावों को२० छोड़कर निर्वाण कार संधान करे-सतत साधना करे ।
- ऐसा मैं कहता हूं।
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