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________________ ३६३ प्रह: धर्म: श्लोक ३४-३६ सूयगडो १ ३४. गिहे दीवमपासंता पुरिसादाणिया णरा। ते वीरा बंधणुम्मुक्का णावखंति जीवियं ॥ गृहे दीपमपश्यन्तः, पुरुषादानीयाः नराः । ते वीराः बन्धनोन्मक्ताः, नावकांक्षन्ति जीवितम् ॥ ३४. गृहवास में दीप" (प्रकाश) न देखने वाले मनुष्य (प्रवजित होकर) पुरुषादानीय११५ हो जाते हैं। वे वीर मनुष्य बंधन से मुक्त हो जीने की इच्छा नहीं करते । ३५. शब्द और स्पर्श में अनासक्त तथा आरम्भ से अप्रति बद्ध रहे । (धर्म का) जो यह स्वरूप कहा गया है, वह सब समयातीत-कालिक है । ११८ ३५. अगिद्ध सद्दफासेसु आरंभेसु अणिस्सिए। सव्वं तं समयातोतं जमेतं लवियं बहु॥ ३६. अइमाणं च मायं च तं परिणाय पंडिए। गारवाणि य सव्वाणि णिव्वाणं संधए मुणि॥ -त्ति बेमि॥ अगृद्धः शब्दस्पर्शयोः, आरंभेषु अनिश्रितः । सर्व तत् समयातीतं, यदेतद् लपितं बहु ।। अतिमानं च मायां च, तत् परिज्ञाय पंडितः । गौरवाणि च सर्वाणि, निर्वाणं संदध्यात् मुनिः ।। -इति ब्रवीमि ॥ ३६. पंडित मुनि अतिमान १९, माया और सभी प्रकार के बड़प्पन के भावों को२० छोड़कर निर्वाण कार संधान करे-सतत साधना करे । - ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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