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________________ टिप्पण: अध्ययन श्लोक १: १. मतिमान् (मईमता) मतिमान् का सामान्य अर्थ है ---बुद्धिमान् । प्रस्तुत प्रसंग में चूर्णिकार और वृत्तिकार ने 'मति' का अर्थ केवलज्ञान किया है । मतिमान् अर्थात् केवलज्ञानी।' २. श्रमण महावीर ने (माहणेण) । माहण का अर्थ है-प्राणियों को मत मारो-इस प्रकार शिष्यों को उपदेश देने वाले भगवान् वीर वर्द्धमानस्वामी ।' चूर्णिकार ने माहण और श्रमण को एकार्थक माना है।' ३. कौन सा (कयरे) इसके दो अर्थ हैं-कैसा, कौन सा ।' ४. ऋजु (अंजु) - इसका अर्थ है-ऋजु, सरल । भगवान् महावीर का धर्म माया-प्रपंच से रहित होने के कारण अवक्र है, ऋजु है। जो बालवीर्यवान् और कुशील होते हैं उनका धर्म वक्र होता है। वे कभी ऋजु नहीं बोलते। बौद्ध धर्मावलंबी कहते हैं---हम परिग्रह नहीं रखते। हम हिंसा आदि नहीं करते। किन्तु वे परिग्रह भी रखते हैं और हिंसा भी करते हैं । अत: उनका धर्म ऋजु नहीं है। भागवत कहते हैं---नारायण ही करता है, देता है और लेता है। जैसे आकाश कीचड़ से लिप्त नहीं होता, वैसे ही जिस पुरुष की बुद्धि सारे जगत् के प्राणियों को मार कर भी उसमें लिप्त नहीं होती, वह पाप से स्पृष्ट नहीं होता। भगवान् महावीर ने ऐसा धर्म नहीं कहा । उनका धर्म ऋजु है, सरल है, सबके लिए समान है। श्लोक २: ५. ब्राह्मण (माहणा) पूर्व श्लोक में 'माहण' भगवान् महावीर का एक विशेषण है। यहां चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं --ब्राह्मण या १ (क) चूणि, पृ० १७५ : मन्यते अनयेति भतिः केवलज्ञानमिति, मतिरस्यास्तीति मतिमान । (ख) वृत्ति, पत्र १७७ : मनुते अवगच्छति जगत्त्रयं कालत्रयोपेतं यया सा केवलज्ञानाख्या मतिः सा अस्यास्तीति भतिभान् । २. वृत्ति, पत्र १७७ : भाहणेणं ति मा जन्तून् व्यापादयेत्येव विनेयेषु वाक्प्रवृत्तिर्यस्यासी माहनो भगवान् वर्द्धभानस्वामी । ३. चूणि, पृ० १७५ : समणे ति (वा माहणे त्ति वा) एगळं । ४. चूणि पृ० १७५ : कतर: केरिसो वा। ५. चूणि पृ० १७५ : अञ्जुरिति आर्जवयुक्तः, न दंभ-कव्वादिभिरुपदिश्येत । ते तु कुशीला: बालवीर्यवन्तः, तेऽनार्जवानि ब्रवते --न वर्ग परिग्रहवन्तः आरंभिणो वा, एतत् सङ्घस्य बुद्धस्य उपासकानां वा इति । भागवतास्तु-नारायणः करोति हरति ददाति वा । उक्तं हि यस्य बुद्धिर्न लिप्येत, हत्वा सर्वमिदं जगत् । आकाशमिव पङ्कन, न स पापेन लिप्यते ॥१॥ नवं भगवता अनार्जवयुक्तो धर्मः प्रणीतः । www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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