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________________ सूयगडो १ अध्ययन १ : टिप्पण १०६ १. परिज्ञोपचित केवल मन से पर्यालोचन करने से किसी प्राणी का वध नहीं होता इसलिए उससे हिंसा-जनित कर्म का चय नहीं होता। २. अविज्ञोपचित-अनजान में प्राणी का वध हो जाने पर भी हिंसा-जनित कर्म का चय नहीं होता। ३. ईर्यापथ-चलते समय कोई जीव मर जाता है, उससे भी हिंसा-जनित कर्म का चय नहीं होता, क्योंकि उसकी मारने की अभि ___ संधि नहीं होती। ४. स्वप्नान्तिक-स्वप्न में जीव-वध हो जाने पर भी हिंसा-जनित कर्म का चय नहीं होता। इन चारों से मात्र कर्म का स्पर्श होता है जो सूक्ष्म तन्तु के बन्धन की भांति तत्काल छिन्न हो जाता है अथवा सूखी भीत पर गिरने वाली धूली की भांति तत्काल नीचे गिर जाता है। उसका विपाक नहीं होता। पाराजिक में हिंसा विषयक बौद्ध दृष्टिकोण प्रतिपादित है जो मनुष्य जानकर मनुष्य को प्राण से मारे, या शस्त्र खोज लाए या मरने को अनुमोदन करे, मरने के लिए प्रेरित करेअरे पुरुष ! तुझे क्या है इस पापी दुर्जीबन से ? तेरे लिए जीने से मरना श्रेय है-इस प्रकार के चित्त-विचार तथा चित्त-विकल्प से अनेक प्रकार से मरने की जो अनुमोदना करे या मरने के लिए प्रेरित करे तो वह भिक्षु पाराजिक होता है । वह भिक्षुओं के साथ सहवास के अयोग्य होता है।' सूत्रकार ने उक्त प्रकरण के संदर्भ में तीन आदानों का प्रतिपादन किया है१. अभिक्रम्य २.प्रेष्य ३. अनुमोदन जीव वध के प्रति कृत, कारित और अनुमति-इन तीनों का प्रयोग होने पर कर्म का चय होता है। इनमें से किसी एक या सब का प्रयोग होने पर हिंसा-जनित कर्म का चय होता है। परिज्ञोपचित ओर अनुमोदन एक नहीं है। परिज्ञोपचित में केवल मानसिक चिंतन होता है और अनुमोदन में दूसरे द्वारा किए जाने वाले जीव-वध का समर्थन होता है।' बौद्धदृष्टि के अनुसार जहां कृत, कारित और अनुमोदन नहीं होता वहां जीव वध होने पर भी कर्म का चय नहीं होता । इस तथ्य की पुष्टि के लिए सूत्रकार ने मांस-भोजन का दृष्टान्त उपस्थित किया है । आर्द्र कुमार और बौद्ध भिक्षुओं के वार्तालाप के प्रसंग में भी इस विषय की चर्चा उपलब्ध है। वहां बौद्ध दृष्टिकोण इस रूप में प्रस्तुत है ___'कोई पुरुष खल की पिंडी को पुरुष जानकर पकाता है, तुंबे को कुमार जानकर पकाता है, फिर भी वह जीव-वध से लिप्त होता है । इसके विपरीत कोई म्लेच्छ मनुष्य को खल की पिंडी समझकर शूल में पिरोता है, कुमार को तुंबा समझकर पकाता है, फिर भी वह जीव-बध से लिप्त नहीं होता। खल-पिंडी की स्मृति से पकाया गया मनुष्य का मांस बुद्धों के लिए अग्राह्य नहीं होता। इस प्रसंग से भी यह फलित होता है कि मन से असंकल्पित जीव-वध होने पर कर्म का चय नहीं होता। १. विनयपटिक ११३ राहुल सांकृत्यायन सन् १९३५ । २. वत्ति, पत्र ३६ : परिज्ञोपचितावस्यायं भेदः-तत्र केवलं मनसा चिन्तनमिह स्वपरेण व्यापाद्यमाने प्राणिन्यनुमोदनमिति । ३. सूयगडो २।६।२६-२८ : पिण्णागपिंडीमवि विद्ध सूले केई पएज्जा पुरिसे इमे त्ति। अलाउयं वा वि 'कुमारग त्ति' स लिप्पई पाणिवहेण अम्हं ।। अहवावि विqण मिलक्ख सूले पिण्णागबुद्धीए णरं पएज्जा। कुमारगं वा वि अलाउएं त्ति ण लिप्पई पाणिवहेण अम्हं ।। पुरिसं च विण कुमारगं वा सूलंमि केइ पए जायतेए। पिण्णागपिडि सइमारहेता बुद्धाण तं कप्पइ पारणाए। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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