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________________ सूयगडो १ ५२ अध्ययन १: टिप्पण१०२-१०६ इन अर्थों के मूल में इनके दो संस्कृत रूप हैं-विद्वस्यते और विशेषेणोशन्ति' । चूणि में 'विउस्सिया' पाठ उपलब्ध नहीं है। वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिए हैं-'न्युत्थिताः' और 'व्युसिताः'।' श्लोक ५१: १०२. क्रियावादी दर्शन (किरियावाइदरिसणं) चूणिकार ने 'कर्म' को क्रिया का पर्यायवाची मानकर इसका अर्थ-कर्मवादी दर्शन किया है। १०३. जो प्राचीनकाल से निरूपित है (पुरक्खायं) 'पुराख्यात' शब्द के अनेक अर्थ हैं'१. जितने दर्शन प्रचलित हैं, उनसे पूर्व कहा हुआ। जैसे गंगा के बालु कणों की गिनती नहीं की जा सकती उसी प्रकार अनगिन बुद्ध हुए हैं, उनके द्वारा कहा हुआ। २. प्राचीन काल के मिथ्या दर्शनों में आख्यात । ३. प्रख्यात । १०४. कर्म-विषयक चिन्तन सम्यक् दृष्ट नहीं है (कम्मचितापणट्ठाणं) कर्म जैसे, जिससे, जिसके और जिन हेतुओं में प्रवर्त्तमान व्यक्ति के बंधता है, उस चिन्ता से रहित । कर्म-बंध या अबंध के विषय में अगले श्लोक के टिप्पण में स्पष्ट कथन किया गया है। १०५. दुःख-स्कंध को बढ़ाने वाला है (दुक्खखंधविवद्धणं) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-कर्म समूह को बढ़ानेवाला' और वृत्तिकार ने दुःख-परम्परा को बढ़ाने वाला किया है।' श्लोक ५१-५५ १०६. श्लोक ५१-५५ अहिंसा के विषय में चिन्तन की अनेक कोटियां रही हैं । प्रस्तुत प्रकरण में बौद्धों का अहिंसक विषयक चिन्तन प्रस्तुत हैं । क्या जीव का वध होने पर हिंसा होती है ? क्या जीव का वध न होने पर हिंसा होती है ? क्या जीव का वध होने पर भी हिंसा नहीं होती ? अहिंसा के चिन्तन में ये तीन महत्वपूर्ण प्रश्न रहे हैं। इन प्रश्नों का सभी धर्माचार्यों ने अपनी-अपनी शैली से समाधान दिया है । बौद्धों ने इन प्रश्नों का उत्तर इस भाषा में दिया-(१) सत्त्व है (२) सत्त्व-संज्ञा है (३) मारने का चिन्तन है और (४) प्राणी मर जाता है-इन चारों का योग होने पर हिंसा होती है, हिंसा से होने वाला कर्म का उपचय होता है। जिन परिस्थितियों में हिंसा नहीं होती उसका उल्लेख सूत्रकार ने किया है । नियुक्तिकार के अनुसार वे चार हैं:१. वृत्ति, पत्र ३८ : विविधम्-अनेकप्रकारम् उत्—प्राबल्येन श्रिताः-संबद्धाः, तत्र वा संसारे उषिताः । २. चूणि, पृष्ठ ३७ : क्रिया कर्मत्यनन्तरम्, कर्मवादिदर्शनमित्यर्थः।। ३. वही, पृष्ठ ३७ : त एवं ब्रवते—'गंगावालिकासमा हि बुद्धाः, तैः पूर्वमेवेदमाख्यातम् । अथवा पुराख्यातमिति पूर्वेषु मिथ्यादर्शन प्रकृतेष्वाख्यातम् । अथवा प्रख्यातं पुराख्यातम् ।। ४. वही, पृष्ठ ३७ : कमचिता णाम यथा येन यस्य येषु च हेतुषु प्रवर्तमानस्य कर्म बध्यते ततो कर्मचिन्तातः प्रनष्टाः । ५. वही, पृष्ठ ३७ : दुःखस्कन्धविवर्द्धनम्, कर्मसमूहवर्द्धनमित्यर्थः । ६. वृत्ति, पत्र ३८ : 'दुःखस्कन्धस्य' असातोदयपरम्पराया विवर्धनं भवति । ७. चणि, पृष्ठ ३७ : कथं पुनरुपचीयते ? उच्यते, यदि सत्त्वश्च भवति सत्त्वसंज्ञा च सञ्चिन्त्य जीविताद् व्यपरापणं प्राणातिपातः। क. सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा २८ : कम्मं चयं ण गच्छति चतुविधं भिक्खुसमयम्मि। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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