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अध्ययन १: टिप्पण ९८-१०१
सूयगडो १ टिल किया है।
श्लोक ४६ ६८. धर्म और अधर्म को (धम्माधम्मे)
चूर्णिकार ने धर्म और अधर्म के दो-दो अर्थ किए हैंधर्म-१. द्रव्य और पर्याय का स्वभाव में अवस्थान ।
२. जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस सधता है तथा जो सुख का कारण है । अधर्म-१. द्रव्य और पर्याय का स्वभाव में अनवस्थान ।
२. जो दुःख का कारण बनता है। वृत्तिकार ने उदाहरण के द्वारा इसकी व्याख्या की है । क्षान्ति आदि धर्म और हिंसा आदि पाप-अधर्म ।' ६६. जैसे पक्षी पिंजरे से (सउणी पंजरं जहा)
जैसे शुक', कोकिल, मैना आदि पक्षी पिंजरे को तोड़ने में सफल नहीं होते अर्थात् पिंजरे से अपने आपको मुक्त नहीं कर सकते। १००. दुःख से (दुक्खं)
चणिकार ने दुःख का अर्थ संसार किया है। कारण में कार्य का उपचार कर दुख का वैकल्पिक अर्थ अधर्म किया है। वृत्तिकार के अनुसार इसके दो अर्थ हैं-असाता का उदय अथवा मिथ्यात्व के द्वारा उपचित कर्म-बंधन ।'
श्लोक ५० १०१. श्लोक ५०
अपने सिद्धांत की प्रशंसा और दूसरे सिद्धांत की गर्दा करना वर्तमान की मनोवृत्ति ही नहीं है, यह बहुत पुरानी मनोवृत्ति है । 'यही सत्य है, दूसरा सिद्धान्त सत्य नहीं है'—इसी आग्रह ने संघर्ष को जन्म दिया है। 'इदमेवकं सत्यं, मम सत्यं'-इस आग्रह से जो असत्य जन्म लेता है, उससे बचने के लिए अनेकान्त को समझना आवश्यक है। अनेकान्तदृष्टि वाला दूसरे सिद्धान्त के विरोध में या प्रतिपक्ष में खड़ा नहीं होता, किन्तु सत्य को सापेक्षदृष्टि से स्वीकार करता है। नियतिवादी नियति के सिद्धान्त को ही परम सत्य मानकर दूसरे सिद्धान्तों का खंडन करते थे तब भगवान् महावीर ने कहा-नियतिवाद ही तत्त्व है, इस प्रकार का गर्व दुःख के पार पहुंचाने वाला नहीं, दुःख के जाल में फंसाने वाला है। प्रस्तुत श्लोक को अनेकान्तदृष्टि की पृष्ठभूमि के रूप में देखा जा सकता है।
चूर्णिकार ने 'विउस्संति'- इस क्रिया पद का अर्थ-विशेष गर्व करना किया है। इस अर्थ के अनुसार इसका संस्कृत रूप 'व्युत्स्रयन्ति' होता है। दृत्तिकार ने 'विउस्संति' का अर्थ-विद्वानों की भांति आचरण करते हैं अथवा अपने शास्त्र के विषय में विशिष्ट युक्ति का कथन करते हैं-किया है। १. वृत्ति, पत्र ३७ : 'अंजु' रिति निर्दोषत्वाद व्यक्तः-स्पष्टः, परैस्तिरस्कर्तुमशक्यः, ऋजुर्वा-प्रगुणोऽकुटिलः। २. चूणि, पृष्ठ ३६ : धर्मो नाम यथाद्रव्यपर्यायस्वभावावस्थानम्, विपरीतोऽधर्म इति । अथवा धर्मोऽभ्युदय-नैश्रेयसिकः सुखकारणमिति,
दुःखकारणमधर्मः। ३. वृत्ति, पत्र ३७। ४. चूणि, पृ० ३६ : यथा शुकः कोकिला मदनशिलाका द्रव्यपञ्जरं नातिवर्तते । ५ वही, पृष्ठ ३६ : दुःखं संसारो । अथवा कारणे कार्यवदुपचारं कृत्वाऽपदिश्यते संसारदुःखकारणमधर्मः । ६. वृत्ति, पत्र ३७ : 'दुःखम्' असातोदयलक्षणं तद्धतुं वा मिथ्यात्वाद्य पचितकर्मबन्धनम् । ७. चूणि, पृष्ठ ३७ : विउस्संति, विशेषेण उस्संति इदमेवैकं तत्त्वमिति विशेषेण उच्छ्यंति गम्वेणं उस्संतीति । ८. वृत्ति, पत्र ३८ : 'विद्वस्यंते' विद्वांस इवाऽचरन्ति, तेषु वा विशेषेणोशन्ति-स्वशास्त्रविषये विशिष्टं युक्तिवातं ववन्ति ।
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