________________
सूयगडो १
३७५
अध्ययन ८: टिप्पण ३७-४० ३७. यह वीर का वीर्य है (एयं वीरस्स वीरियं)
संलेखना, अध्यात्म द्वारा पाप का समाहरण, हाथ-पैर तथा इन्द्रियों का प्रतिसंहरण, मान और माया की परिज्ञा-यह वीर का वीर्य है । यह है-अकर्मवीर्य या पंडितवीर्य । इस वीर्य से सम्पन्न व्यक्ति ही वीर कहलाता है।'
श्लोक २०: ३८. कपट सहित (सातियं)
चूर्णिकार और वृत्तिकार ने 'सातियं' का शाब्दिक अर्थ 'आदिना सह' और उसका तात्पर्य 'माया सहित' किया है।
हमने इसका संस्कृत रूप 'साचिक' किया है । संस्कृत कोष में साचि का अर्थ है-माया।' साधक माया सहित झूठ न बोले । झूठ और माया का अनिवार्य साहचर्य है । माया के बिना झूठ बोला नहीं जाता । यहां कपटपूर्वक झूठ बोलने का प्रतिषेध है। ३६. मुनि का (वुसीमओ)
चूणिकार ने इसका अर्थ वसुमान किया है।' वसु का अर्थ है-धन । मुनि के पास ज्ञान आदि का धन होता है, इसलिए वह वसुमान कहलाता है । किन्तु 'वुसीम' का यह अर्थ संगत नहीं लगता। यह अर्थ 'वसुम' शब्द का हो सकता है। आचारांग (१।१७४) में 'वसुम' शब्द का प्रयोग उपलब्ध है।
वृत्तिकार ने 'वुसीम' को छान्दस् प्रयोग मानकर इसका अर्थ वसुमान किया है, जो चूणि सम्मत है। इसका वैकल्पिक अर्थ वश्य (इन्द्रियजयी) किया है । शाब्दिक दृष्टि से वश्य भी संगत नहीं है।'
'वसीम का संस्कृत रूप 'वृषीमत्' उपयुक्त लगता है । वृषि संन्यासी का उपकरण है, इसलिए वृषीमान् का अर्थ संन्यासी हो सकता है । यहां 'एस धम्मे बुसीमओ'-यह मुनि का धर्म है' यह अर्थ स्वाभाविक है।
बौद्ध साहित्य में 'वसी' के पांच प्रकार निदिष्ट हैं--(१) आवज्जनावसी (२) संपज्जनाबसी (३) अधित्थानवसी (४) वुत्थानवसी (५) पच्चवेक्खनवसी।' हो सकता है 'बुसीम' का यही अर्थ रहा हो और उच्चारण भेद से 'वसी' का स्थान 'वुसी' ने ले लिया हो।
श्लोक २१:
४०. अतिक्रम (अतिक्कमंति)
वृत्तिकार ने अतिक्रम के तीन अर्थ किए है
१. प्राणियों को पीड़ा देना। १. चूणि, पृ० १७०। २. (क) चूणि, पृ० १७१ : सादियं णाम माया, सादिना योगः, सादियोगः, सह आतिना सातियं ।
(ख) वृत्ति, पत्र १७३ : सहादिना—मायया वर्तत इति सादिक-समायम् । ३. संस्कृत-इंग्लिश कोष, मोनियर मोनियर विलियम्स-देखें-'साचि' शब्द । ४. (क) चूणि पृ० १७१ : न हि मृपावादो मायामन्तरेण भवति, स चोक्कंचण-वंचण-कूडतुलादिसु भवति, सातियोगसहितो मुसावादो
भवति, स च प्रतिषिध्यते, अन्यथा तु 'न मृगान् पश्यामि ण य वल्लिकाइयेसु समुद्दिस्सामो' एवमादि
व यात्, येनात्र परो वञ्च्यते तत् प्रतिषिध्यते, कोध-माण-माया-लोभसहितं वचः । (ख) वृत्ति, पत्र १७३ । ५. चूणि पृ० १७१ : सिमता वसूनि ज्ञानादीनि । ६. वृत्ति पत्र १७३ । 'बुसीमउ' त्ति छान्दसत्वात, निर्देशार्यस्त्वयं वसूनि ज्ञानादीनि तद्वतो ज्ञानादिमत इत्यर्थः, यदि वा-वुसीमउत्ति
वश्यस्य-आत्मवशगस्य-वश्येन्द्रियस्येत्यर्थः । ७. पटिसंमिदा १९७-१००। ८. वृत्ति, पत्र १७३ : प्राणिनामतिका-पीडात्मकं महाव्रतातिकम वा मनोऽवष्टब्धतया परतिरस्कारं वा इत्येवम्भूतमतिक्रमम् ।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org