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सूयगडो १
२. महाव्रतों का उल्लंघन करना ।
३. मन में अहंभाव लाकर दूसरों का तिरस्कार करना ।
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४१. इन्द्रियों का संयम करे (आयाणं सुसमाहरे)
'आदान' का अर्थ है - इन्द्रियां जिनके द्वारा विषय का ग्रहण होता है, वह आदान कहलाता है । 'सुसमाहरे' का अर्थ हैभली भांति संयम करना ।
वृत्तिकार का अर्थ भिन्न है । उन्होंने मोक्ष के उपादन कारण सम्यग्दर्शन आदि को आदान माना है और 'सुसमाहर' का अर्थ-ग्रहण करना किया है ।"
४३. श्लोक २३, २४ :
४२. आत्मगुप्त (आवत्ता )
अपने आप में रहने वाला ब्लक्ति आत्मगुप्त होता है । जिसने अपने मन, वचन और काया को गुप्त कर लिया है वह आत्म
गुप्त है।
श्लोक २३, २४ :
साधना के क्षेत्र में दो प्रकार के पुरुष होते हैं
१. अबुद्ध और असम्यक्त्वदर्शी ।
२. बुद्ध
और सम्यक्त्वदर्शी ।
श्लोक २२ :
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अध्ययन ८ टिप्पण ४१-४३
ये दोनों ही वीर होते हैं। अबुद्ध पुरुष सकर्म वीर्य में वर्तमान होते हैं और बुद्ध पुरुष अकर्मवीर्य में वर्तमान होते है । ये दोनों ही पराक्रम करते हैं । अबुद्ध पुरुष सकर्मवोर्य से भावित होकर पराक्रम करते हैं, इसलिए उनका पराक्रम अशुद्ध और सफल - कर्मबंधयुक्त होता है । बुद्ध पुरुष अकर्मवीर्य से भावित होकर पराक्रम करते हैं, इसलिए उनका पराक्रम शुद्ध और अफल - कर्मबंधमुक्त होता है ।
ये दोनों श्लोक कर्मवीर्य और अकर्मवीर्य के उपसंहारवाक्य हैं। इनमें यह प्रतिपादित किया गया है कि पराक्रम प्रत्येक मनुष्य करता है । अबुद्ध या अज्ञानी मनुष्य भी करता है तथा बुद्ध या ज्ञानी मनुष्य भी करता है। पराक्रम अपने रूप में पराक्रम मात्र है । उसमें कोई अन्तर नहीं होता । अन्तर डालने वाले दो तत्व हैं—ज्ञान और दृष्टि । अज्ञान और असम्यक्दृष्टि से भावित मनुष्य का पराक्रम अशुद्ध और सफल होता है। अशुद्ध का अर्थ है कि वह शल्य, गौरव, कषाय आदि दोषों से युक्त होता है और सफल का अर्थ है कि वह शल्य आदि दोषों से युक्त होने के कारण कर्मबंध का हेतु भी बनता है । ज्ञान और सम्यकदृष्टि से भावित मनुष्य का पराक्रम शुद्ध और अफल होता है। शुद्ध का अर्थ है कि वह शल्य, गौरव, कषाय आदि दोषों से मुक्त होता है और अफल का अर्थ है कि वह शल्य आदि दोषों से मुक्त होने के कारण संयममय होता है । संयम का फल है अनास्रव - कर्मबंध न होना ।
असम्यक्त्वदर्शी के पराक्रम को अशुद्ध और सफल कहने का तात्पर्य शल्य आदि दोषों से युक्त पराक्रम की साधना की दृष्टि से, अवांछनीयता प्रदर्शित करना है ।
प्रस्तुत सूत्र के दूसरे अध्ययन में इसका समर्थन-सूत्र मिलता है
'जइ विय णिगणे किसे चरे, जइ विय भुंजिय मासमंतसो जे इह मायादि मिज्जई, आगन्ता गब्भादणंतसो ||
१. वृत्ति पत्र १७३ : मोक्षस्य आदानम् उपादानं सम्यग्दर्शनादिकं सुष्ठ्य क्तः सम्यग्विस्रोतसिका रहितः 'आहरेत्' आवदीत गृह्णीयादित्यर्थः । २. (क) चूणि पृ० १७१ (ख) वृति पत्र १७४
आत्मनि आत्मसु वा गुप्ता ।
मनोवाक्कायनिरोधेन गुप्तो येषां ते तथा ।
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(सूयगडो १/२/६)
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