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सूयगडो १
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अध्ययन ८: टिप्पण ४४ —यद्यपि कोई भिक्षु नग्न रहता है, देह को कृश करता है और मास-मास के अन्त में एक बार खाता है फिर भी माया आदि से परिपूर्ण होने के कारण वह अनन्त बार जन्म-मरण करता है। योगवासिष्ठ में इसी आशय का एक श्लोक मिलता है
'वासनामात्रसारत्वात्, अज्ञस्य सफलाः क्रियाः।
सर्वा एवाफला ज्ञस्य, वासनामात्रसंक्षयात् ।। -अज्ञानी मनुष्य की क्रिया का सार वासनामात्र होता है, इसलिए वह सफल होती है और ज्ञानी मनुष्य के वासनामात्र का क्षय हो जाता है, इसलिए उसकी क्रिया अफल होती है।
चूणि के आधार पर इन दोनों श्लोकों का प्रतिपाद्य यह है-अबुद्ध और असम्यक्त्वदर्शी का पराक्रम कषाय आदि दोषों से युक्त होने के कारण अशुद्ध होता है । बुद्ध और सम्यक्त्वदर्शी का पराक्रम कषाय आदि दोषों से मुक्त होने के कारण शुद्ध होता है।
समीक्षात्मक दृष्टिकोण से यह कहना उचित होगा कि इहलौकिक और पारलौकिक सुखों की आकांक्षा तथा पूजा-श्लाघा के लिए किया जाने वाला पराक्रम साधना की दृष्टि से अवांछनीय है और केवल निर्जरा के लिए किया जाने वाला पराक्रम वांछनीय है। असम्यक्त्वदर्शी निर्जरा के लिए कुछ भी नहीं करता और सम्यक्त्वदर्शी सब कुछ निर्जरा के लिए ही करता है, यह इसका प्रतिपाद्य नहीं है।
श्लोक २५: ४४. श्लोक २५
चूर्णि और वृत्ति में यह श्लोक भिन्न प्रकार से व्याख्यात है। दोनों के स्वीकृत पाठ में भी अन्तर है। चूणि के अनुसार इस श्लोक की व्याख्या इस प्रकार है
'जो जैसा कहते हैं वैसा करते हैं, जो ईक्ष्वाकु आदि प्रधान कुलों में उत्पन्न हैं, अथवा जो सामान्य कुलों में उत्पन्न होकर भी विद्या, तपस्या और पराक्रम से महान हैं, वे अभिनिष्क्रमण कर साधना अवस्था में दूसरे द्वारा अपमानित होने पर भी श्लाघा नहीं करते-ऐसा नहीं कहते कि मैं अमुक राजा था, अमुक शेठ था । वे पूजा सत्कार और श्लाघा के लिए अपने कुल की प्रशंसा नहीं करते, उनका तप शुद्ध होता है।' वृत्ति के अनुसार यह श्लोक और इसकी व्याख्या इस प्रकार है
'तेसि पि तवोऽसुद्धो, निक्खंता ये महाकुला ।
जं नेवन्ने विवाणंति, न सिलोगं पवेअए ॥ -जो लोकविश्रु त ईक्ष्वाकु आदि महान कुलों से प्रव्रज्या के लिए अभिनिष्क्रमण करते हैं, उनका भी तप अशुद्ध होता है, यदि वह पूजा-सत्कार पाने के लिए किया जाता है या अपने कुल की प्रशंसा के निमित्त किया जाता है। उसको तपस्या इस प्रकार से करनी चाहिए कि दूसरे उसे जान न सके। वह अपनी श्लाघा भी न करे- 'मैं पहले उत्तम कुल में उत्पन्न या धनवान् था, अब तप से अपने शरीर को तपाने वाला तपस्वी हूं।' वह अपनी प्रशंसा स्वयं न करे । १. योगवासिष्ठ ६।१।८७१८ । २. चूणि, पृ० १७२ : पूया-सक्कारणिमित्तं विज्जाओ णिमित्ताणि य पयुंजमाणा तपांसि च प्रकाशानि प्रकुर्वन्ति तेषां बालानां यत् किञ्चिदपि पराक्रान्तं तदशुद्धम् भावोपहतत्वाद् नवकेनापि भेदेन अज्ञानदोषाच्च । एवमादिभिर्दोषैः अशुद्धं नाम यथोक्तैर्दोषैः,
पराकान्तं चरितं चेष्टितमित्यर्थः, कुवैद्यचिकित्सावत् । ३. चूर्णि, पृ० १७२ : तेसि भगवंताणं सुद्धं तेसि परक्कंत, शुद्धं णाम णिस्वरोधं सल्ल-गारव-कसायाविदोसपरिशुद्धं अनुपरोधकृद् भूतानाम् । ४. चूणि, पृ० १७२। ५. वृत्ति, पत्र १७५॥
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