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सूयगडो १
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श्रध्ययन ७ : प्रामुख
५. जलशौचवादी- भागवत, परिव्राजक आदि सजीव जल के उपयोग में मोक्ष की स्थापना करते थे । वे वार-बार हाथ-पैर धोने, स्नान करने में रत रहते थे वे मानते थे कि जैसे जल से बाह्य शुद्धि होती है, वैसे ही आन्तरिक शुद्धि भी होती है ।"
छठे श्लोक का प्रतिपाद्य है कि जो मनुष्य अग्नि को जलाता है, वह भी प्राणियों का बध करता है और जो अग्नि को बुझाता है, वह भी प्राणियों का वध करता है। दोनों प्रवृत्तियों में हिंसा है। इसका भगवती सूत्र में स्पष्ट उल्लेख मिलता है। वहां अग्नि जलाने वाले को महाकर्म करने वाला और अग्नि को बुझाने वाले को अल्पकर्म करने वाला कहा है। दोनों हिंसा संवलित प्रवृत्तियां हैं । अग्नि के प्रज्वालन में पृथ्वी, पानी, वायु, वनस्पति और त्रस इन जीवों की अधिक हिंसा है और अग्नि जीवों की कम हिंसा है। अग्नि के विध्यापन में अग्नि-जीवों की प्रचुर हिंसा है और शेष जीवों की कम हिंसा है ।
विशेष विवरण के लिए देखें- टिप्पण नं २३ ।
पशु-पक्षियों के उदाहरण से जल- शौचवादियों का खंडन पनरहवें श्लोक में किया गया है। उसमें मत्स्य, कूर्म, सरीसृप, मद्गु, उद्द और उदकराक्षस- ये नाम आए हैं। ये सारे जलचर प्राणी हैं । सूत्रकार का कथन है कि यदि पानी के व्यवहरण से ही मोक्ष प्राप्त होता हो तो सबसे पहले ये जलचर पशु-पक्षी मोक्ष जाएंगे ।
इनमें तीन शब्द महत्वपूर्ण है-
१. मंगु -- जलकाक ।
२. उद्द--- उदबिलाव । नेवले के आकार का उससे एक बड़ा जंतु जो जल और स्थल दोनों में रहता है ।"
३. उदकराक्षस-- मनुष्य की आकृतिवाले जलचर प्राणी ।
प्रस्तुत अध्ययन के चौथे श्लोक के प्रथम दो चरण कर्मवाद की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं- 'अस्ति च लोए अदुवा परस्था, सयग्गसो वा तह अण्णहा वा।' इनमें कर्मवाद से संबंधित चार प्रश्न पूछे गए हैं
१. क्या किए गए कर्मों का फल उसी जन्म में मिल जाता है ?
२. क्या किए गए कर्मों का फल दूसरे जन्म में मिलता है ?
३. क्या उस कर्म का तीव्र विपाक एक ही जन्म में मिल जाता है ?
४. जिस अशुभ प्रवृत्ति के आचरण से वह कर्म बांधा गया है, क्या उसी प्रकार से वह उदीर्ण होकर फल देता है या दूसरे प्रकार से ?
चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इनका विस्तार से समाधान प्रस्तुत किया है ।
प्रस्तुत आगम के दूसरे स्कंध (२०६९) में धर्म-प्रवचन करने के लिए कुछ निर्देश दिए हैं। मुनि मोक्षाभिमुख होता है। वह समस्त आसक्तियों को छोड़कर परिव्रजन करता है। संयम यात्रा के उचित संचालन के लिए वह शरीर का पोषण करता है । शरीर-पोषण का एकमात्र साधन है- भोजन । मुनि अपनी चर्या से ही भोजन प्राप्त करता है । वह न स्वयं भोजन पकाता है और न दूसरों से पकवाता है । 'दत्तेसणां चरे'-- वह गृहस्थों द्वारा प्रदत्त भिक्षा से अपना निर्वाह करता है । उसकी दिनचर्या का एक अंग है धर्म देशना । सूत्रकार ने धर्म-प्रवचन करने की कुछ सीमाएं निर्धारित की हैं
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१. मुनि अन्न के लिए धर्मदेशना न दे ।
२. मुनि पान के लिए धर्मदेशना न दे ।
३. मुनि वस्त्र के लिए धर्मदेशना न दे ।
४. मुनि स्थान के लिए धर्मदेशना न दे ।
५. मुनि शयन (पाट बाजोट) के लिए धर्म देशना न दे ।
६. मुनि अन्य किसी प्रकार की सुख-सुविधा की प्राप्ति के लिए धर्म देशना न दे ।
७. मुनि केवल कर्म - निर्जरा के लिए, बंधनमुक्ति के लिए धर्म देशना दे ।
प्रस्तुत अध्ययन के पांच श्लोकों ( २३-२७) में इसी धर्म देशना के सीमा-सूत्र प्रतिपादित हैं।
१. (क) चूर्णि, पृ० १५२, १५७ ।
(ख) वृत्ति, पत्र १५६ |
२ देखें-- टिप्पण संख्या ६२ ।
३. देखें - टिप्पण संख्या १४ ।
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