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सूयगडो १
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२. प्रशस्त अभीक्ष्ण्य सेवनाशील - ज्ञानशील, तपः शील ।
अप्रशस्त अभीदण्य सेवनाशील कोमशील मानशील, मायाशील, लोमशील, चोरणशील, पानशील, पिशुनशील, परोपतापनशील, कलहशील आदि ।
नितिकार ने स्वयं सुशील और सुशील का म्युत्पत्तिभ्य अर्थ प्रस्तुत किया है। सुशील और कुशील में प्रयुक्त प्रथम वर्ग 'सु' और 'कु' निपाल शब्द है ''सार्थक शुद्धि-अर्थक निवास है और 'कु' जुगुप्सार्थक अशुद्धि-अर्थक निवास है। जैसे सौराज्य का अर्थ है—अच्छा राज्य और कुग्राम का अर्थ है— बुरा गांव। इसी प्रकार सुशील का अर्थ है--अच्छे आचरण वाला और कुशील का अर्थ है - बुरे आचरण वाला ।
"
अप्राक आहार का उपभोग करने के आधार पर नियुक्तिकार ने नामोल्लेखपूर्वक पांच प्रकार के कुशीलों का प्रतिपादन किया है ।" महावीरकालीन इन धर्म-संप्रदायों के आचार का वर्णन ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इनके आचार का कुछ विस्तार से वर्णन किया है१. गोतम
- ये मशकजातीय धर्म-संप्रदाय के संन्यासी गोव्रतिक होते हैं। ये बैल को नाना प्रकार से प्रशिक्षित करते हैं और फिर उसके साथ घर-घर में जाकर बैल की तरह रंभाते हैं और अपने हाथ में रहे हुए छाज (सूर्प) में धान्य इक्कट्ठा करते हैं । ये ब्राह्मण-तुल्य जाति के होते हैं ।"
२. चंडीदेवगा
ये प्रायः अपने हाथ में चक्र रखते हैं। चूर्णिकार ने इसके
स्थान पर 'रंडदेवगा' शब्द माना है ।"
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३. वारिभद्रक -ये पानी पर छा जाने वाली शैवाल-काई खाते हैं, हाथ पैर आदि बार-बार धोते हैं, बार-बार स्नान और आचमन करते हैं और तीनों संध्याओं में जल में डुबकियां लेते हैं ।"
अध्ययन ७ : प्रामुख
४. अग्निहोमवादी - विभिन्न प्रकार के तापस और ब्राह्मण हवन के द्वारा मुक्ति बतलाते थे । वे मानते थे कि जो व्यक्ति स्वर्ग आदि फल की आकांक्षा न करता हुआ समिधा, घृत आदि हव्य-विशेष के द्वारा अग्नि का तृप्त करता है, हवन करता है वह मोक्ष के लिए वैसा करता है। जो किसी आशंसा से हवन करता है वह अपने अभ्युदय को सिद्ध करता है । जैसे अग्नि स्वर्ण मल को जलाने में समर्थ है, वैसे ही वह (अग्नि) मनुष्य के आन्तरिक पापों को जलाने में समर्थ है।'
१. (क) निर्मुक्तिगाचा, परिभासिता कुसौला य एत्य जावंति अविरता केप
सुति पसंसा सुद्धे दु ति दुर्मुखा अपरिसुद्धे ॥ वृति पत्र, १५३ ।
(ख) वृणि, पृ० १५१ २. निर्युक्तिगाथा, ८३ : जह
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णाम गोतमा रंडदेवता वारिमया चेव ।
जे अग्गिहोमवादी जलसोयं केइ (जे इ ? ) इच्छति ॥
३. कृषि, पृ० १५२ गोतमा नाम पाडियो मगजातीया, ते ही गोणं गाणाविधेहि उपाएहदमिक योगयोतयेण सह गिहे धनं ओहारेंता हिति । गोव्वतिगावि धोयारप्राया एव, ते च गोणा इव णत्थितेल्लूगा रंभायमाणा गिहे गिहे सुप्पेहि यहितेहि धणं ओहारेमाणा विहति।
४. वृत्ति, पत्र १५४ : चंडीदेवगा इति चक्रधरप्रायाः ।
५. चूर्ण, पृ० १५२ : अवरे रंडदेवगावरप्रायाः ।
६. (ख) चूर्णि, पृ० १५२ : वारिभद्रगा प्रायेण जलसक्का हत्थ पाद-पक्खालणरता व्हायंता य आयमंता य संझा तिसु तिसु य जलणि
बुट्टा अपरिगाययादि ।
(ख) वृत्ति, पत्र १५४ : वारिभद्रका अन्मक्षा शेवालाशिनो नित्यं स्नानपादादिधावनाभिरताः ।
७. (क) वृषि, १० १५२ अग्निवादी तास धीवारावारा अग्निहोत् स
(ख) वृत्ति, पत्र १५६ : तथैके तापसब्राह्मणादयो हुतेन मोक्षं प्रतिपादयन्ति ये किल स्वर्गादिफलमनाशस्य समिधाघृतादिभिर्हग्यतर्पयन्ति ते मोक्षायाग्निहोत्रं जुह्वति शेवास्त्वम्युदयायेति युक्ति चात्र ते आपया हामि सुवर्णादीनां महत्व दहनसामर्थ्यदर्शनादात्मनोऽप्यन्तरं पापमिति ।
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