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अध्ययन ९: प्रामुख
सूयगडो १
३८६ श्लोक १७
२५. अष्टापद- शतरंज खेलना । २६. वेधातीत-वस्त्रद्यूत-चौपड आदि खेखना । २७. हस्तकर्म-हाथापाई करना, हस्तक्रिया करना ।
२८. विवाद करना। श्लोक १८
२६. उपानह- जूते पहनना। ३०. छत्र-छत्र धारण करना। ३१. नालिका-नली के द्वारा पासा डालकर जुआ खेलना । ३२. बालवीजन--पंखा आदि से हवा लेना ।
३३. परक्रिय---परस्पर की क्रिया करना। श्लोक १६
३४. अस्थंडिल का व्यवहरण करना। श्लोक २०
३५. पर-अमत्र-गृहस्थ के भाजन में भोजन करना।
३६. पर-वस्त्र-गृहस्थ के वस्त्रों का व्यवहरण करना। श्लोक २१
३७. आसन्दी का उपयोग करना । ३८. पर्यंक का व्यवहार करना । ३६. गृहान्तरनिषद्या---गृहस्थ के अन्तर् घर में बैठना । ४०. संपृच्छन-सावध प्रश्न पूछना या शरीर पोंछना।
४१. स्मरण --पूर्व भुक्तभोगों का स्मरण करना। श्लोक २६
४२. ग्रामकुमारिकाक्रीड़ा---ग्राम के लड़कों का खेल देखना । इन सब अनाचीणों के अतिरिक्त सूत्रकार ने भाषा-विवेक का प्रतिपादन भी किया है। भाषा-विवेक के कुछेक बिन्दु ये हैं० दो या दो से अधिक व्यक्ति बात करते हों तो मुनि बीच में न बोले । ० मर्मस्पर्शी भाषा न बोले। ० मायाप्रधान वचन न कहे। ० विचारपूर्वक बोखे । ० बोलने के पश्चात् पछताना पड़े, ऐसी भाषा न बोले । ० उपघातकारी भाषा न बोले । • होलाबाद-हे होले ! हे गोले ! हे वृषलका प्रयोग न करे । ० सखिवाद-हे मौसी ! , हे बुआ ! , हे भानजी का प्रयोग न करे । ० गोत्रवाद-किसी को गोत्र से संबोधित न करे । ० तूं-तू-मैं-मैं की भाषा न बोले, तिरस्कारयुक्त भाषा न बोले ।
० अमनोज्ञ-अप्रिय भाषा न बोले । १. सूयगडो, ६/२५-२७ ।
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