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________________ सूयगडो १ ५८७ प्रध्ययन १४ : टिप्पण ८७-८९ ८७. (ण कत्थई भास विहिंसएज्जा) इसका अर्थ है-भाषा की हिंसा न करे, दूसरे के कथन का तिरस्कार न करे, निन्दा न करे । दूसरे के कुछ कहने पर, उसके कथन में असंबद्धता का उद्घाटन कर उस प्रश्नकर्ता की विडम्बना न करे।' ८८. (णिरुद्धगं वावि ण वोहएज्जा) निरुद्ध का अर्थ है-थोड़े अर्थ वाला व्याख्यान या थोड़े समय में पूरा होने वाला व्याख्यान ।' इसका तात्पर्य है कि मुनि तत्त्व की व्याख्या करते समय या धर्मकथा करते हुए, अर्थ को बढ़ाकर उसे अधिक लम्बा न करे । केवल उतना ही अर्थ बताए जो अक्षरों में निबद्ध है-सो अत्यो वत्तम्वो जो अत्थो अक्खरेहिं आरूढो ।' चार प्रकार के सूत्र होते हैं१. अक्षर अल्प, अर्थ महान् । २. अक्षर अधिक, अर्थ अल्प । ३. अक्षर अल्प, अर्थ अल्प। ४. अक्षर अधिक, अर्थ महान् । इनमें प्रथम भंग ही प्रशस्त है। वही सूत्र-वाक्य अच्छा माना जाता है जो अल्पाक्षर वाला हो, किन्तु जिसका अर्थ महान् हो। इसीलिए प्राचीन आचार्यों ने कहा है 'सो अत्थो वत्तव्यो, जो मण्णइ अक्खरेहि थोवेहि । जो पुण थोवो बहुअक्खरेहि सो होइ निस्सारो॥' -जो अल्पाक्षर और महान् अर्थ वाला होता है, वही अच्छा है । जो अधिक अक्षर वाला और अल्प अर्थ वाला होता है वह निस्सार है। मुनि अल्प अर्थ वाले या अल्पकाल में पूर्ण होने वाले व्याख्यान या तत्त्व-प्रसंग को व्याकरण, तर्क आदि तथा प्रसक्ति या अनुप्रसक्ति के द्वारा लम्बा न करे।" श्लोक २४: ८६. भलीभांति अर्थ को देखने वाला (समियाअददंसी) इसका संस्कृत रूप है--'सम्यक् + अर्थदर्शी'। इसका अर्थ है-यथावस्थित अर्थ का प्रतिपादन करने वाला, देखने वाला। मूनि आचार्य आदि के पास अर्थ की जैसी अवधारणा की हो उसी प्रकार से उसकी अभिव्यक्ति करे, मनगढ़त कथन न करे । वह नई व्याख्या न करे । वह यह समझे कि मैं आचार्य नहीं हूं। मुझे नई व्याख्या करने का अधिकार नहीं है। मैंने आचार्य के पास जैसी अवधारणा की है, वही मैं दूसरों को बताऊं । इस प्रकार सोचने वाला सम्यक् अर्थदर्शी होता है । १. (क) चूणि, पृ० २३५ : तस्य वाऽबुद्ध्यमानस्य श्रोतुर्न कुत्रचिद् भाषां विहन्सेत्-अहो ! भङ्गा लक्ष्यन्ते, न निन्वेदित्यर्थः । (ख) वृत्ति, पत्र २५७ : न तिरस्कुर्याद् असंबद्धोद्घट्टनतस्तं प्रश्नयितारं न विडम्बगेदिति । २. वृत्ति, पत्र २५७ : निरुद्धम्-अर्थस्तोकम् ........"निरुद्धं वा-स्तोककालीनं व्याख्यानम् । ३. चणि, पृ० २३५ : निबद्धं वाऽमर्थाख्यानं वा न दीर्घ कुर्याद अधिकार्थः सो अत्यो वत्तवो जो अत्यो अक्खरेहि आरूढो। ४. (क) चूणि पृ० २३५ । (ख) वृत्ति, पत्र २५७ । ५. वृत्ति, पत्र २५७ : स्तोककालीनं व्याख्यानं व्याकरणतर्कादिप्रवेशनद्वारेण प्रसक्त्यानुप्रसक्त्या 'न दीर्धयेत्'-न दीर्घकालिकं कुर्यात् । ६. (क) चूणि, पृ० २३६ : समिया नाम सम्यग् यथा गुरुसकाशादुपधारितम्, सम्यग् अर्थ पश्यन्ति समियाअट्ठदंसी नाहमाचार्य इति कृत्वा। (ख) वृत्ति, पत्र २५७ : सम्यग-यथावस्थितमर्थं यथा गुरुसकाशादवधारितमर्थप्रतिपाद्रष्टुं शीलमस्य स भवति सम्यगर्थदर्शी । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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