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________________ गो१ १. सत्य भाषा । २. मृषा भाषा । ३. सत्यामृषा - मिश्र भाषा । ४. असत्यामृषा-व्यवहारभाषा । मुनि के लिए प्रथम और अन्तिम — इन दो भाषाओं का प्रयोग करणीय और शेष दो भाषाओं का प्रयोग अकरणीय है । दशवैकालिक सूत्र के सातवें अध्ययन का नाम है- 'वाक्यशुद्धि ।' इसमें चारों प्रकार की भाषाओं का स्वरूप कथन तथा विधि-निषेध का सुन्दर प्रतिपादन हुआ है । प्रस्तुत प्रसंग में 'भाषाद्विक' - सत्यभाषा और व्यवहार भाषा के बोलने का कथन किया गया है।' वृत्तिकार का कथन है कि मुनि विभज्यवाद का प्रतिपादन भी इन दो भाषाओं से ही करे। किसी के प्रश्न किए जाने पर या न किए जाने पर अथवा धर्म का व्याख्यान करते समय या और किसी अवसर पर मुनि इन दो भाषाओं का ही सहारा ले । ८४. समतापूर्वक ( समया ) चूर्णिकार ने इसका अर्थ 'सम्यक्' किया है । ' चक्रवर्ती और कंगाल — दोनों के प्रति समभाव ५८६ ८६. ( तहा तहा साहु अकक्कसेणं) ८५. (अणुगच्छमाणे वितऽभिजाणे ) आचार्य, मुनि आदि जब धर्मकथा करते हैं या तत्त्व का प्रतिपादन करते हैं तब कोई मेधावी शिष्य अपनी प्रखर बुद्धि से उस तत्त्व को सम्यक् ग्रहण कर लेता है, उस तत्त्व का अनुसरण कर लेता है और कोई मन्द बुद्धि वाला शिष्य उस तत्व को विपरीत रूप से ग्रहण करता है ।" अध्ययन १४ : टिप्पण ८४-८६ रखता हुआ या राग-द्वेष से रहित होकर मुनि विहरण करे । * श्लोक २३ : यहां 'साहु' शब्द दीर्घ होना चाहिए था। छन्द की दृष्टि से ह्रस्व का प्रयोग हुआ है । तुम जो मंद मेधा वाला शिष्य तत्त्व का यथार्थ अनुसरण नहीं कर पाता तब आचार्य उसे वैसे-वैसे हेतु दृष्टान्त, युक्ति, उपसंहार आदि के द्वारा भलीभांति समझाने का प्रयत्न करें, किन्तु कर्कश वचनों से उसकी निर्भर्त्सना करते हुए यह न कहें - अरे ! निरे मूर्ख हो । धिक्कार है तुम्हें ! इस अर्थ से तुम्हारा क्या प्रयोजन ! तुम दुर्बोध्य हो। तुम्हे ब्रह्मा भी नहीं समझा सकता । मुनि तत्त्व समझाते समय मन, वचन और काया से भी शिष्य की अवहेलना न करे, भर्त्सना न करे । मन से भर्त्सना, जैसे-आंख, मुंह को विकृत करना । वचन से भर्त्सना —तुम मूर्ख हो, दुर्बोध्य हो आदि कहना । काया से भर्त्सना - क्रुद्धमुख होना तथा हाथ और होठों को फड़फड़ाना। ६. (क) पृषि, पृ० २३५ । (ख) वृति पत्र २५७ ॥ Jain Education International पढम चरिमाओ दुवे भासाओ । १. चूणि, पृ० २३५: सत्या असत्यामृषा च भाषावुगं २. वृत्तपत्र २५७ भयादपि भावाद्वितयेनंवादित्वाभाव: आद्यचरनयोः सत्यासत्यामृषयोकिं भाषाद्विकं - चायायं स्वचित्पृष्टोऽपृष्टो वा धर्मरूपावसरेऽयदा या सा था। ३. चूर्ण, पृ० २३५: समयेत्ति सम्यग् । ४. वृत्ति, पत्र २५७ : सह विहरन् चक्रवतिंद्र मकयोः समतया रागद्वेषरहितो वा । ५. (क) चूर्णि, पृ० २३५ - तस्यैवं कथयतः कश्चिद् ग्रहण- धारणा सम्पन्नः यथोक्तमेवा वितत्थं गृह्णाति कश्चित्तु मन्वमेधावी विnasमिजाणाति । (ख) वृत्ति पत्र २५७ तस्यैव भावाइमेन कथयतः कश्चिग्मेधावितया तथैव समर्थयाचार्यादिना कथितमनुगच्छन्सम्यगवते, अपरस्तु मन्दमेधावितथा वितथम् अन्ययाभिजानीयात्। -- तो For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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