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सूयगडो १
६०. संगत बात कहे ( समालवेज्जा )
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इसके दो अर्थ हैं- अच्छी प्रकार से बात कहना या संगत बात कहना । "
प्रश्नकर्त्ता यदि अल्पाक्षर वाली बात को अच्छी तरह से न समझ सके तो मुनि अपने कथन को विविध प्रकार से कहे, उसका भावार्थ बताए । '
१. अर्थपूर्ण और अस्खलित वचन बोले (पडिपुण्णभासी )
अपूर्ण और अस्मलित वचन बोलने वाला प्रतिपूर्णभावी होता है।
अक्षरों तथा अर्थ की दृष्टि से जो वाक्य अहीन, अस्खलित और अमिश्रित होता है, वही वाक्य प्रतिपूर्ण होता है, वही भाषा प्रतिपूर्ण होती है । जो मुनि ऐसी भाषा का प्रयोग करता है, वह प्रतिपूर्णभाषी कहलाता है ।"
अध्ययन १४ टिप्पण १०-१२
मुनि व्याख्यान करते समय अथवा प्रश्न का उत्तर देते समय थोड़े अक्षर बोलकर ही अपने आपको कृतार्थ न समझे। क्योंकि यदि विषय गहन हो, उसकी अर्थाभिव्यक्ति दुरूह हो तो श्रोता के आधार पर उचित हेतु और युक्तियों के द्वारा विषय को स्पष्ट करे, जिससे कि श्रोता उसे हृदयंगम कर सके।
दशकालिक सूत्र में भी मुनि को 'प्रतिपूर्ण' भाषा बोलने का निर्देश दिया है।'
१२. आज्ञासिद्ध वचन का प्रयोग करे ( आणाए सिद्धं बघणं भिजु जे )
मुनि आज्ञासिद्ध वचन का प्रयोग करे। जैसे गुरु ने अर्थ की अभिव्यक्ति की है, उसी प्रकार से अर्थ की अभिव्यक्ति करे । इस प्रकार आज्ञासिद्ध का अर्थ है— गुरु के पास की हुई अवधारणा, स्वेच्छाकल्पित नहीं । वचन का अर्थ है – सूत्र और अर्थ |
मुनि तत्त्व का निरूपण करते समय उत्सर्ग के स्थान पर उत्सर्ग, अपवाद के स्थान पर अपवाद, स्व- समय के स्थान पर स्वसमय और पर समय के स्थान पर समय का अवलंबन ले । स्वेच्छाचारिता से वह कुछ भी न कहे । '
वृत्तिकार ने 'आणाए सुद्ध' पाठ मानकर आज्ञा का अर्थ - सर्वज्ञ द्वारा प्रणीत आगम और शुद्ध का अर्थ - निर्मल, पूर्वापरअविरुद्ध निरवद्य वचन किया है। शेष व्याख्या चूर्णिकार के समान ही है । "
आचारांग ११३८ में 'आणाए' का अर्थ - तीर्थङ्कर या अतिशयज्ञानी का वचन किया है ।" उसी आगम के ११६७ में 'अमाणाए' का अर्थ तीर्थदूर के वचनों का अतिक्रमण किया है।
१. चूर्ण, पृ० २३४ : सोमणं संगयं वा लवेज्जा ।
२. वृत्ति, पत्र २५७ : यत्पुन र तिविष मत्वादल्पाक्षरैनं सम्यगवबुध्यते तत्सम्यक् शोभनेन प्रकारेण समन्तात् पर्यायशब्दोच्चारणतो भावार्थकथमतश्चालपे ।
३. (क) चूर्ण, पृ० २३६ : पडिपुण्णमासी अट्ठ-अक्खरे हि अहीनं अक्खलितं अमिलितं ।
(ख) वृत्ति पत्र २५७ प्रतिपुर्णभास्वाद अस्थासितामिलिताहीनाक्षी भवेदिति ।
४. वृति पत्र २५७
५. बसवेल
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नारेवाल रंक्त्वा कृतार्थो भवेद, अपितु शेयनामावणे सहेतुकत्वादिभिः धोतारम्" अवि पनि वियं नियं
अपरमणिं चासं निसिर अन्तर्व
६. पूमि, पृ० २२३ आणाए सिद्ध व आशा यथा गुरुगोपदिष्टं तचैवोपदेष्टव्यम् आशासिद्धं नाम ययोपधारितम् न स्वेच्छाविकल्पितम् वचनमिति समत्यो वा विविधं मुंजे कां ? उसको उत्सम् अववाते अचवावं, एवं ससमये ससमयं परसमये परसमयं ।
७. वृति पत्र २५७ तीर्थकराया-- सर्वनप्रणीतागमानुसारेण 'शुद्धम्' अवदातं पूर्वापराविरुद्ध निरवद्यं वचनमभियुञ्जीतोत्सर्गविषये सति उत्सर्गमपवादविषये चापवाद तथा स्वपरसमयोर्यथास्वं वचनमभिवेत् ।
८. आयारो, १/३८ वृत्ति, पत्र ३६: आज्ञया मौनीन्द्रवचनेन ।
६. वही, १/२७, वृत्ति पत्र १८ अनाशां वर्त्तते न भगवत्प्रणीतवचनानुसारीति ।
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