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सूयगडो १
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अध्ययन १४ टिप्पण ९३-९६
'आणाए मामगं धम्मं - इसका अर्थ हैं- वे मेरे धर्म को जानकर मेरी आज्ञा को स्वीकार कर (आजीवन मुनि-धर्म का पालन करते हैं) ।
'आज्ञा' शब्द के ये सारे परम्परागत अर्थ हैं। वास्तव में इसका अर्थ- अतीन्द्रियज्ञान या उपचार से अतीन्द्रियज्ञानी का वचन भी हो सकता है ।
१३. पाप का विवेक करने वाले वचन का संधान करे (अभिसंधए पायविवेग)
तत्त्व की व्याख्या करते समय मुनि प्रतिपल यह सोचे कि मेरे पाप का पृथक्करण कैसे हो ? वह पूजा, सत्कार या किसी प्रकार के गौरव के वशीभूत होकर व्याख्यान न करे। वह केवल यह सोचे कि व्याख्यान करने का एकमात्र उद्देश्य है- कर्मों की निर्जरा, पाप का पृथक्करण ।
मुनि लाभ, सत्कार आदि से निरपेक्ष रहकर निर्दोष वचन कहे ।"
श्लोक २५ :
१४. यथोक्त वचन को (अहाबुदवाई)
इसका अर्थ है - यथोक्त वचन अर्थात् तीर्थंङ्कर, गणधर आदि विशिष्ट ज्ञानियों का वचन । *
६५. मर्यादा का अतिक्रमण कर न बोले ( णाइवेलं वएज्जा )
भूमिकार ने 'बेला' के दो अर्थ किए है
१. जिस सूत्र और अर्थ का या धर्मदेशना का जो काल है, वह । २. मर्यादा ।
वृत्तिकार ने 'वेला' का अर्थ - अध्ययन-काल और कर्त्तव्य-काल किया है ।
जिस कार्य को जिस समय में करना हो, उसी समय में उसे निष्पन्न करना चाहिए। काल का अतिक्रमण दोष है । इसका तात्पर्य है कि मुनि अध्ययन काल में अध्ययन करे और निर्धारित काल में अपने दूसरे कर्त्तव्यों को सम्पन्न करे । जिस समय जो सूत्र पढ़ना हो, उसे पढ़े, जो अर्थ धारण करना हो उस अर्थ को धारण करे और जिस समय व्याख्यान करना हो, उस समय व्याख्यान करे । काल-मर्यादा का अतिक्रमण न करे । दशवैकालिक सूत्र का प्रसिद्ध सूक्त है- 'काले कालं समायरे ।' मुनि यथाकालवादी और यथाकालचारी हो । '
६. वृष्टि को खंडित या दूषित न करे (दिट्ठि ण लसएन्जा)
'लूसएज्जा' के दो अर्थ हैं - खंडित करना, दूषित करना ।
दृष्टिमान् मुनि धर्मकथा करते समय, स्वपक्ष या परपक्ष की बात कहते हुए ऐसी बात कहे जिससे सम्यग्दृष्टि का हनन न
हो । कुतीर्थिकों की प्रशंसा या अपसिद्धान्त के कथन से श्रोताओं की दृष्टि को भी दूषित न करे । वह तत्त्व का प्रतिपादन इस रीति से १. आयारो ६ / ४८ ॥
२. चूर्ण, पृष्ठ २३६ : कथं मम वाचयतः पापविवेकः स्यात् ? न च पूजा-सरकार-गौरवादिकारणाद् वाचयति ।
३. वृत्ति, पत्र २५७ : लाभसत्कारादिनिरपेक्षतया काङ्क्षमाणो निर्दोषं वचनमभिसन्धयेदिति ।
४. वृत्ति, पत्र २५८ : यथोक्तानि तीर्थंकरगणधराविभिस्तानि ।
५. घृणि, पृष्ठ २३६ : वेला नाम यो यस्य सूत्रस्यार्थस्य धर्मदेशनाया वा कालः, वेला मेरा, तां वेलां नातीत्य ब्रूयादित्यर्थः ।
६. वृत्ति, २५८ : सदा यतमानोऽपि यो यस्य कर्तव्यस्य कालोऽध्ययनकालो वा तां बेलामतिलंध्य नातिवेलं वदेद्— अध्ययनकर्त्तव्य मर्यादां नातिलङ्घयेत् स ( स ) गुण्डानं प्रति प्रजेद्वा यथावसरे परस्पराबाधया सर्वाः क्रियाः कुर्यादित्यर्थः ।
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