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सूयगडो
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अध्ययन ७: टिप्पण १०४-१०५
चूर्णिकार ने इसका आशय स्पष्ट करते हुए कहा है कि मुनि सहनशील रहे। कोई उसे काठ की भांति छील कर, उस पर नमक का लेप करे अथवा घावों पर नमक छिड़के, फिर भी वह द्वेष न करे, समभाव रखे।'
वृत्तिकार का आशय भिन्न है । काठ को दोनों ओर से छीलने पर ही वह पतला होता है, उसी प्रकार मुनि भी बाह्य और आभ्यन्तर तप से अपने शरीर को कृश करे।'
यहां शरीर और कषाय- दोनों को कृश करने की बात प्राप्त होती है।
आयारो ६।११३ में भी 'फलगावयठुि' शब्द का योग हुआ है। इसका अर्थ है-बाह्य और आन्तरिक तप के द्वारा फलक की भांति शरीर और कषाय-दोनों ओर से कृश बना हुआ मुनि......... ।' १०४. काल के (अंतगस्स)
अंतक का अर्थ है- मृत्यु, शरीर का अन्त करने वाला ।'
चूर्णिकार ने इसका मुख्य अर्थ मोक्ष और वैकल्पिक अर्थ-मृत्यु किया है।" १०५. प्रपंच (जन्म-मरण) में......जाता (पवंचुवेइ)
यहां दो पदों में संधि की गई है-पवंचं+उवेइ । प्रपंच का अर्थ है-जन्म, बुढ़ापा, मृत्यु, दुःख, दौर्मनस्य, रोग, शोक आदि ।'
१. चूणि, पृ० १६२ : यद्यप्यसौ परीसहैहन्येत अर्जुनकवत् अथवा फलकवदवकृष्ट : क्षारेणालिप्येत सिच्येत वा तथापि अप्रदुष्टः । २. वृति, पत्र १६४ : फलक वदपकृष्टः यथा फलकमुभाभ्यामपि पार्वाभ्यां तष्टं-घट्टितं सत्तनु भवति अरक्तद्विष्टं वा संभवत्येवमसावपि
साधुः सबाह्याभ्यन्तरेण तपसा निष्टप्तदेहतनु:-दुर्बलशरीरोऽरक्तद्विष्टश्च । ३ आयारो, पृ०२५५। ४. वृत्ति, पत्र १६४ : अन्तकस्य मृत्योः । ५. चूणि, पृ० १६२ : अन्तको नाम मोक्षः अथवा अन्तं करोतीति अन्तकः । ६ (क) वही, पृष्ठ १६२ : प्रवंच जाति-जरा-मरण-दुःख-दौमनस्यादिनटवदनेकप्रकार: संसार एव प्रपञ्चकः ।
(ख) वृत्ति, पत्र १६५ : प्रपञ्च जातिजरामरणरोगशोकादिकं प्रपञ्च्यते बहधा नटवद्यस्मिन् स प्रपञ्चः-संसारः ।
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