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सूयगडो १
नहीं है वह है 'अति' अर्थात् उर्वर भूमि।"
३५२
वृत्तिकार ने इसका अर्थ- ज्ञान, दर्शन और चारित्र से परिपूर्ण किया हैं । "
श्लोक २६ :
EE. पाप का विवेक (पृथक्करण) (पावस्स विवेग )
८. भार को वहन करने के लिए (भारस्स जाता )
इसका अर्थ है- भार की यात्रा के लिए अर्थात् संयम भार को वहन करने के लिए ।
चूर्णिकार ने भार का अर्थ - संयमभार और यात्रा का अर्थ- संयम यात्रा किया है। संयम भार को वहन करने के लिए तथा संयम यात्रा के लिए - यह इसका संयुक्तार्थ है । "
वृत्तिकार ने इसका अर्थ- - पांच महाव्रत के भार को वहन करने के लिए किया है।
अध्ययन ७ टिप्पण ६८-१०३
यहां 'विवेग' विभक्ति रहित पद है । यह छन्द की दृष्टि से किया गया है ।
विवेक का अर्थ है- पृथक्करण, विनाश ।" पाप का पृथक्करण करना, पाप को अलग करना । चूर्णिकार ने 'पाप' के दो अर्थ किए हैं— कर्म और शरीर । शरीर को पाप मानने के दो हेतु हैं- कृतघ्नता और अशुचिता । "
१००. शान्त (धुयं )
चूर्णिकार ने 'धुत' के पांच अर्थ किए हैं- वैराग्य, चारित्र, उपशम, संयम और ज्ञान । वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-संयम और मोक्ष ।'
१०१. रहे (आइएन्जा)
इसका अर्थ है - ग्रहण करना, स्वीकार करना । दुःखों से स्पृष्ट होने पर मुनि 'धुत' को ग्रहण करे अर्धात् धुत के द्वारा (वैराग्य या उपशमन के द्वारा) दुःखों पर विजय प्राप्त करे । इसका प्रसंगोपात्त अर्थ है– (शान्त) रहे । १०२. कामनाओं का (परं)
यहां 'पर' शब्द कामनाओं का वाचक है । वृत्तिकार ने इसका अर्थ शत्रु किया है।"
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श्लोक ३० :
१०३. दोनों ओर से छीले गए फलक की भांति ( फलगावतट्टी)
इसमें दो शब्द हैं- फलग और अवतट्ठी । इनका अर्थ है- दोनों ओर से छीले गए फलक की भांति ।
१. चूर्ण, पृ० १६१ : अखिलो णाम अखिलेसु गुणेसु वत्तितव्यम् अथवा खिलमिति यत्र किञ्चिदपि न प्रसूते ऊषरमित्यर्थः ।
२. वृति १६४ अखिल ज्ञानदर्शनयारिः सम्पूर्णः ।
३. चूर्ण, पृ० १६२ : भारो नाम संयमभारो । जाताए त्ति संयमजातामाताणिमित्तं संजमभारवहणट्ठताए ।
४.
वृत्ति, पत्र १६४ : संयमभारस्य यात्रार्थं पञ्चमहाव्रतभार निर्वाहणार्थम् ।
५. वृति पत्र १६४ विवेकं पृथग्भावं विनाशम् ।
६. चूर्ण, पृ० १६२: पावं नाम कम्मं, त्रिवेगो विनाश इत्यर्थः सर्वविवेको मोक्षः, एसो देसविवेगो । अधवा पापमिति शरीरम् कृतघ्न
त्वादचित्वाच्च ।
७. चूर्ण, पृ० १६२ : धुअं वैराग्यं चारित्रं उपशमो वा संजमो णाणादि वा ।
८. वृत्ति पत्र १६४ : धूतं संयमं मोक्षं वा ।
६. चूर्ण, पृ० १६२ : आदिएज्ज सि तमादद्यात् तेन तेषां जयं कुर्यादित्यर्थः ।
१०. वृत्ति, पत्र १६४ : परं
शत्रुम्।
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