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सूपगडो १
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अध्ययन ७ टिप्पण ६३-६७
चूर्णिकार का अभिमत है कि जो व्यक्ति अज्ञातपिंड की एषणा करता है वह निश्चित ही अन्न-पान के विषय में अनासक्त
होता है । "
६३. (आहार न मिलने पर भूख को ) सहन करे ( अहियास एज्जा )
इसका अर्थ है - सहन करना । प्रसंगवश इस शब्द का तात्पर्य है- आहार न मिलने पर मुनि भूख को सहन करे ।
वृत्तिकार ने इसका अर्थ - जीवन निर्वाह करे - दिया है ।
अन्तप्रान्त आहार मिलने या न मिलने पर मुनि दीन न बने और श्रेष्ठ आहार मिलने पर मद न करे ।
४. तपस्या से पूजा पाने की अभिलाषा न करे ( णो पूयणं तवसा आवहेज्जा )
तपस्या से पूजा पाने की अभिलाषा न करे । इसका तात्पर्य है कि साधक मनुष्य पूजा या सत्कार के निमित्त तपस्या न करे । तप मुक्ति का हेतु है । पूजा सत्कार या इसी प्रकार की दूसरी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए उसका उपयोग न करे। जो पूजा-सत्कार के निमित्त तपस्या करता है वह तत्त्व का अजान है। कहा भी है
'परं लोकाधिक धाम तयः प्रतमिति प्रथम सदेवा चित्वनितसारं
वायते।
लोक में दो उत्तम स्थान हैं- तप और श्रुत। ये दो ही श्रेष्ठ स्थान की प्राप्ति के हेतु हैं। यदि इनसे पौगलिक सुख की आकांक्षा की जाती है तो ये तृण के टुकड़े की भांति निःसार हो जाते हैं।"
५. (सद्देहि रूवेहि
)
प्रस्तुत दो चरणों में शब्द रूप तथा अन्य सभी इन्द्रिय-विषयों को छोड़ने का निर्देश है । वृत्तिकार ने प्रस्तुत प्रसंग में पांच श्लोकों का निर्देश किया है ।"
६. संसर्गों को ( संगाई )
संग का अर्थ है—आसक्तभाव । संसर्ग दो प्रकार के होते हैं - बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य संसर्ग के विषय हैं-पदार्थ । आभ्यन्तर संसर्ग है-स्नेह, ममता आदि आदि ।
चूर्णिकार ने संग का अर्थ प्राणातिपात आदि अठारह पाप किया है।"
श्लोक २८ :
७. ( गुणों की उत्पत्ति के लिए) उर्वर (अखिले)
चूर्णिकार ने अखिल पद के दो अर्थ किए हैं-संपूर्ण उर्वर मुनि को समस्त गुणों में प्रवृत्त होना चाहिए, इसलिए उसे अखिल कहा गया है । इसका दूसरा अर्थ है- उर्वर । खिल का अर्थ है- ऊपर भूमि, जहां कुछ भी निष्पन्न नहीं होता । जो 'खिल'
१. चूर्ण, पृ० १६१ : ण संथव - वणीमगादीहिं अण्णातउंछं एसति, अधियासणा अलंममाणे.. ......जो हि अण्णार्यापडं एसए सो नियमा
अणाणुगिद्धो । २. चूर्ण, पृ० १६१ : अधिवासना अलंभमाणे ।
३. वृत्ति, पत्र १६४ : 'अधिसहेत्' वर्तयेत् पालयेत, एतदुक्तं भवति--अन्तप्रान्तेन लब्धेनालब्धेन वा न दैन्यं कुर्यात्, नाप्युत्कृष्टेन
मदं विदध्यात् ।
,
४. पत्र १४ नापि तपसा पूजनसरकारमावहेत्, न जनसरकारनिमितं तब कुर्यादित्यर्थः यदि वा पूजासत्कारनिि विद्याविनया महता तो मुनिःसारं कुर्यात् तदुक्तम्परं लोकाधि...
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५. वृत्ति, पत्र १६४ ।
६. वृति पत्र १६४''संधान्तरान् स्नेहलतान् बाह्यरचयपरिलक्षणान् । ७. चूर्ण, पृ० १६२ : सङ्गा प्राणिवधादय: जाव मिच्छादंसणं ति ।
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