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सूयगडो १
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प्रध्ययन ७:टिप्पण 8०-१२
दिगंबर परंपरा के अनुसार कुशील निर्ग्रन्थ वह है जो इन्द्रियों और कषायों का वशवर्ती होकर संयम मार्ग को छोड़, उत्पथगामी हो जाता है।
जो क्रोध आदि कषायों से कलुषित है, जो व्रत, गुण और शील से रहित है, जो संघ का अविनय करता है, वह कुशील कहलाता है।
जो मुनि मूल गुणों का यथावत् पालन करता है, परंतु उत्तरगुणों की कुछ विराधना करता है, वह प्रतिसेवना कुशील है।
जो मुनि कषायों के सभी प्रकार के उदयों को वश में कर लेता है किन्तु संज्वलन कषाय के अधीन होता है वह कषाय कुशील कहलाता है।
चर्णिकार ने पार्श्वस्थ और कुशील मुनि को चारित्रगुण से हीन केवल वेशधारी मुनि माना है।' ९०. सेवन करता है (सेवमान)
चुणिकार ने इसका अर्थ वाणी से तथा आगमन-गमन से सेवन करना और वृत्तिकार ने दाता की सेवा करना किया है।'
'सेवमान' का संबंध तीसरे चरण में प्रयुक्त 'पासत्थयं' और 'कुसीलयं' के साथ उचित लगता है। इस औचित्य के आधार पर हमने इसका संबंध उन दोनों शब्दों से जोड़ा है।
चूर्णिकार ने तीसरे चरण की भावनापूर्ति के लिए 'प्राप्य' का अध्याहार करने की बात कही है। वृत्तिकार ने 'पार्श्वस्थभावमेव व्रजति, कुशीलतां च गच्छति'- इस प्रकार क्रियाओं का अध्याहार कर अर्थ किया है । इसके बदले यदि 'सेवमान' को इन दोनों पदों (पार्श्वस्थ और कुशील) के साथ जोड़ कर अर्थ करते हैं तो अर्थ की संगति बैठ जाती है। ६१. पुआल (पुलाए)
धान्यकण जो कीड़ों द्वारा खा लिए जाने पर निस्सार हो गया हो, जो केवल तुषमात्र बचा हो, वह पुआल (पुलाक) कहलाता
हलायुध कोश तथा आप्टे की संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी में पुलाक का अर्थ निस्सार धान्य किया है। मनुस्मृति १०११२५ में भी यहीं अर्थ है।
श्लोक २७:
१२. अज्ञातपिंड की एषणा करे (अण्णायपिंडेण)
अज्ञातपिंड का संबंध आहार की एषणा से है। चूणिकार ने इसके दो लक्षण यहां बतलाए हैं-१. आहार की एषणा के लिए अपना परिचय न देना, अपने आपको अज्ञात रखना और (२) याचक की भांति दीनता प्रदर्शित न करना । ये दोनों 'अज्ञात' पद द्वारा सूचित हैं । इस अज्ञात अवस्था में लिया जाने वाला आहार 'अज्ञातपिंड' कहलाता है।
देखें-दसवेआलियं ६।३।४ का टिप्पण । १. भावपाहुड, गाथा १४, टीका पृ० १३७ : क्रोधादिकषायकलुषितात्मा व्रतगुणशीलः परिहीनः संघस्याविनयकारी कुशील उच्यते । २. सर्वार्थसिद्धि, ६।४७, पृ० ४६१ : प्रतिसेवनाकुशीलो मूलगुणानविराधयन्नुत्तरगुणेष कांचिद् विराधनां प्रतिसेवते । ३. वही, ६।४६, पृ० ४६ ० : वशीकृतान्यकषायोदयाः संज्वलनमानतन्त्राः कषाय कुशीलाः । ४. चूणि, पृ० १६१ : केवलं लिङ्गावशेषः चारित्रगुणबञ्चितः : ५. चूणि, पृ० १६१ : सेवमान इति वायाए सेबति आगमण-गमणादीहि य । ६. वृत्ति, पत्र १६३ : तमेव दातारमनुसेवमानः । ७. चूणि, पृ० १६१ : प्राप्येति वाक्यशेषः । ८. वृत्ति, पत्र १६३ । ६. चूणि, पृ० १६१ : पुलाए जधा धण्णं कीडएहि णिप्फोलितं णिस्सारं भवति केवलं तुषमात्रावशेषम् ।
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