SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 386
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूयगडो १ ३४६ अध्ययन ७: टिप्पण ८६-८६ 'नीवार' को नहीं छोड़ता, फिर चाहे शिकारी उसके सींग ही क्यों न उखाड़ ले, या उसे मार ही क्यों न डाले।' नीकार का वैकल्पिक अर्थ है-कांगनी, मूग, उड़द आदि धान्य ।' देखें-३३३६ का टिप्पण। श्लोक २६ : ८६. इहलौकिक (इहलोइयस्स) अन्न, पान इहलौकिक पदार्थ हैं । वे शरीर-पोषण के साधन-मात्र हैं। वे मोक्ष के लिए नहीं होते।' ८७. प्रिय वचन बोलता है (अणुप्पियं भासति) ___ इसका अर्थ है-जिसको जो प्रिय हो, वैसा बोलना । जैसे राजा का सेवक या उसकी हां में हां मिलाने वाला व्यक्ति राजा के वचन के पीछे-पीछे बोलता है।' चूणिकार के अनुसार इसका अर्थ है-वह मुनि अन्न-पान की प्राप्ति के लिए दाता के समक्ष प्रिय बोलता है-- अरे, इस लड़की का विवाह क्यों नहीं कर देते ? इस बैल का दमन क्यों नहीं करते? इसे प्रशिक्षित क्यों नहीं करते ?" ८८. पार्श्वस्थता (पासत्थयं) दिगंबर ग्रंथों में 'पार्श्वस्थ' का स्वरूप इस प्रकार है जो दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय और तपविनय से दूर रहता है और जो गुणी व्यक्तियों के छिद्र देखता रहता है, वह पार्श्वस्थ है । वह वन्दनीय नहीं होता। 'जो संयम का निरतिचार पालन नहीं करता, जो दोषयुक्त भोजन ग्रहण करता है, जो एक ही क्षेत्र और वसति में रहता है, जो नमक, घी आदि का संग्रह करता है, वह पार्श्वस्थ है।" देखें-११३२ का टिप्पण। ८९. कुशीलता (कुसीलयं) मूल तथा उत्तरगुणों में दोष लगाने वाला निर्ग्रन्थ कुशील कहलाता है । उसका चारित्र कुछ-कुछ मलिन हो जाता है। उसके प्रमुख दो प्रकार हैं ---प्रतिसेवना कुशील और कषाय कुशील । इन दोनों के पांच-पांच प्रकार हैं - १. ज्ञानकुशील ४. लिंगकुशील २. दर्शनकुशील ५. यथासूक्ष्मकुशील । ३. चारित्रकुशील १. चूणि, पृ० १६१ : वरादाहन्तीति वराहः, वरा भूमी, स उद्वत्तविषाणोऽपि भूत्वा अन्यान् पुरतोऽपि हन्यमानान् दृष्ट्वा तन नीकारे गृद्धो न पश्यति । २. चूणि, पृ० १६१ : अधवा निकारो नाम सस्यानि रालक-मुद्ग-माषादीनि । ३ चूणि, पृ० १६१ : इहलौकिकानि हि अन्न-पानानि, न मोक्खाय, तेषामैहिकानामन्नपानानां हेतुरिति वाक्यशेषः । ४ वृत्ति, पत्र १६३ : अनुप्रियं भाषते यद्यस्य प्रियं तत्तस्य वदतोऽनु–पश्चाद्धाषते अनुभाषते, प्रतिशब्दकवत् सेवकवद्वा राजाद्य क्तमनु वदतीत्यर्थः । ५.चूणि, पृ० १६१: अनुप्रियाणि भाषते-एस वारिगा कीस ण दिज्जह? गोणे कि ण दम्मइ ? एवमादि । ६. मूलाचार, गाथा ५९४ : सणणाणचारित्ततवविणए, णिच्चकाल पासस्था । एदे अवदणिज्जा छिद्दप्पेही गुणधराणाम् ॥ ७. भगवती आराधना, गाथा १७२२,१७२३, विजयोदया वृत्ति । ८. ठाणं ५।१८७, पृ० ६४२, टिप्पण १०६ : कुसीले पंचविधे पण्ण, तं जहा-णाणकुसोले, दसणकुसीले, चरित्तकुसोले, लिंगकुसीले, आहासुहुमकुसीले णाम १ चमे । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy