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________________ सूयगडो १ ३४८ अध्ययन ७ : टिप्पण ८१-८५ चूणि और वृत्ति का उक्त अर्थ बुद्धिगम्य नहीं है । तात्पर्यार्थ में जो यावज्जीवन का अर्थ किया है वह उचित है। किन्तु 'आदि' का अर्थ संसार किया गया है, यह यहां प्रासंगिक नहीं लगता । वास्तव में यहां 'आविमोक्खं' पाठ होना चाहिए। उसका अर्थ होगा--प्राणविमोक्ष तक अर्थात् जीवनपर्यन्त । लिपि के संक्रमण-काल में 'वि' के स्थान पर 'दि' लिखा गया प्रतीत होता है। श्लोक २४ : ८१. पेट भरने के लिए धर्म का आख्यान करता है (आधाइ धम्म उदराणुगिद्धे) भिक्षा के लिए गया हुआ मुनि घर में प्रविष्ट होकर गृहस्थों की रुचि के अनुकूल धर्म कहता है, वह अपना पेट भरने के लिए आसक्त होता है । इसका तात्पर्य यह है कि जो पेट भरने में आसक्त है वह दान में श्रद्धा रखने वाले घरों में जाकर, केवल स्वादु भोजन की प्राप्ति के लिए धर्मकथा करता है। धर्मकथा करने का उसका दूसरा कोई प्रयोजन नहीं होता।' ८२. वह आर्य श्रमणों की ... 'हीन होता है (से आरियाणं गुणाणं सतंसे) बैसा मुनि आर्य-श्रमणों की गुण-संपदा के सौवें भाग में होता है--यह इसका शब्दार्थ है । सूत्रकार का आशय है कि वह मुनि चारित्र-संपन्न आर्य (आचार्य) के गुणों से शतगुना हीन होता है। प्रस्तुत पद में 'शत' शब्द उपलक्षण मात्र है । उसका भावार्थ है कि वैसा मुनि हजारगुना या उससे भी अधिक हीन होता है।' श्लोक २५ : ८३. गृहस्थ (पर) यहां 'पर' का अर्थ है-गृहस्थ । वृत्तिकार ने 'पर' का अर्थ 'अन्य' किया है।' ५४. दाता की प्रशंसा करते हैं (मुहमंगलिओदरियं) ये दो शब्द हैं –'मुहमंगलिओ' और 'ओदरियं' । यहां द्विपद में संधि होकर 'मुहमंगलिओदरियं' शब्द निष्पन्न हुआ है। जो जिह्वा के वशीभूत होकर, स्वादु भोजन की प्राप्ति के लिए अपने मुख से भाट की तरह गृहस्थ की प्रशंसा करता है वह 'मखमांगलिक' है। वह कहता है-आप ऐसे हैं, आप वैसे हैं । आप वही हैं जिनके गुण दशों दिशाओं में फैले हुए हैं । इतने समय तक तो मैं कथाओं में ऐसे व्यक्तियों का वर्णन पढ़ता था, किन्तु आज मैंने प्रत्यक्ष ही आपको देख लिया।' 'ओदरियं' का अर्थ है-अन्नपान, भोजन।" ८५. चारे के लोभी (णीवारगिद्धे) चर्णिकार ने इसका संस्कृत रूप 'नीकार' दिया है । मूंग और उड़द के मिश्रण से बनाए गए भोजन को 'नीवार' कहा है । यह सूअर का प्रिय भोजन है । सूअर 'नीवार' के भोजन में इतना आसक्त हो जाता है कि वह अपने शिकारी को देखकर भी १. (क) चूणि, पृ० १६० ।। (ख) वृत्ति, पत्र १६३ । २. (क) चूणि, पृ० १६० : आरिया चरित्तारिया तेति सहस्समाए सो वट्टति सहस्सगुणपरिहीणो । ततो य हेतृतरेण । (ख) वृत्ति, पत्र १६३ : अयासावाचार्यगुणानामार्यगुणानां वा शतांशे वर्तते शतग्रहणमुपलक्षणं सहस्रांशादेरप्यधो वर्तते इति । ३ वृत्ति, पत्र १६३ : परभोजने पराहारविषये । ४. वृत्ति, पत्र १६३ : मुखमाङ्गलिको भवति मुखेन मङ्गलानि-प्रशंसावाक्यानि ईदृशस्तादृशस्त्वमित्येवं दैन्यभावमुपगतो वक्ति, उक्तं 'सो एसो जस्स गुणा वियरंतनिवारिया दसदिसासु । इहरा कहासु सुच्चसि पच्चक्खं अज्ज विट्ठोऽसि ॥' ५. चूणि, पृ० १५६ : औदरिकम् -अन्न-पानमित्यर्थः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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