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सूपगड १
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श्लोक २१:
७५. मिक्षा से प्राप्त (धम्मलई)
इसका अर्थ है - भिक्षा, माधुकरी वृत्ति से प्राप्त भोजन । वह भोजन जो औदोशिक, क्रीतकृत आदि बयालीस दोषों से मुक्त तथा मुधालब्ध हो किसी आशंसा से प्राप्त न हो । '
७६. अन्न का संचय कर (विनिहाय)
मुनि भोजन आदि का संचय न करे। आज मेरे उपवास आदि तपस्या है, मैं भोजन कर चुका हूं या आज मैं स्वस्थ नहीं हूं ऐसा सोचकर मुनि दूसरे दिन के लिए भोजन का संचयन करे।
७७. निर्जीव जल से (वियडेण )
'विराट' इसके तीन संस्कृत रूप किए जाते हैं विकट, विकृत और विगत
चूर्णिकार ने विगत का अर्थ निर्जीव किया है।' इसका प्रयोग शीतोदक और उष्णोदक दोनों के साथ होता है-सीओदग वियडेण वा उसिणोदग वियडेण वा । अगले श्लोक में चूर्णिकार ने इसका अर्थ तन्दुलोदक आदि किया है।" वृत्तिकार ने सौवीरादि जल किया है ।" वास्तव में इसका प्रयोग 'पानक' के अर्थ में होता है । उस युग में नाना प्रकार के पानक या पने तैयार किए जाते थे । वे निर्जीव होते थे ।
७८. (लूस व यत्थं)
७६. नाग्न्य ( श्रामण्य) से ( णागणियस्स)
इसका अर्थ है - कपड़ों को फाड़कर छोटे और सांध कर बड़े करना या सीना । '
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अध्ययन ७ : टिप्पण ७५-८०
नाग्न्य का अर्थ है - श्रामण्य, निर्ग्रन्थ भाव या संयमानुष्ठान ।"
श्लोक २२ :
८०. मृत्यु पर्यन्त ( आदिमोक्खं )
आदि का अर्थ है संसार और मोक्ष का अर्थ है- मुक्ति । संसार से मुक्त होने तक यह इसका अर्थ है । इसका वैकल्पिक अर्थ है- शरीर धारण करने तक, यावज्जीवन । "
१. (क) पूर्ण. पृ० १५, बुधालत्यमित्यर्थः, बाताली सदोषपरिसुद्ध
(ख) वृत्ति, पत्र १६२ : धर्मेण मुधिकथा लब्धं धर्मलब्धं उद्देशक क्रीतकृदादिदोषरहितमित्यर्थः ।
२. चूर्ण, पृ० १५६ : निधायेति सन्निधि कृत्वा तं पुण अमत्तच्छंदुवरितं प्रत्तसेसं वा 'अन्मतट्ठो वा मे अज्ज' एवमादीहि कारणेहि सनिधि का जति ।
३. चूर्णि, पृ० १५६ : विगतमिति विगतजीवं ।
४. चूषि, पृ० १६० ५. वृत्ति पत्र १६२
६. (क) चूणि, पृ० १५६ : लूसपति णाम जो छिन्दति, छिदितुं वा पुणे संधेति वा सिव्वति वा ।
(ख) वृत्ति, पत्र १६२ : लूषयति शोभार्थं दीर्घमुत्पाटयित्वा ह्रस्वं करोति ह्रस्वं वा सन्धाय दीर्घं करोति एवं लूषयति ।
७. (क) चूणि, पृ० १५६ : नग्नभवो हि गंगणिगा स्यात् ।
(ख) वृत्ति, पत्र ८. (क) चूर्णि, पृ० (ख) वृति पत्र
गिगादि ।
विकटेन प्रामुकोदकेन सौवीरादिना ।
१६२ : नागणियस्स ति निर्ग्रन्यभावस्य संयमानुष्ठानस्य ।
१६० : आदिमोक्खो आदिरिति संसार:, स यावन्न मुक्तः ततो वा मुक्तः यावद्वा शरीरं ध्रियते तावत् । १६२ आदि संसारस्तस्मात् मोक्ष आदिमोक्षः (तं) संसारविमुक्तिं यावदिति, धर्मकारणवादितं शरीरं सद्विमुक्तिं यावत् बावन्नीयमित्यर्थः ।
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