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सूयगडो १
अध्ययन ७: टिप्पण ७१-७४ ७१. (भूतेहिं जाण पडिलेह सात...........तसथावरेहि)
इसका अर्थ है--- त्रस और स्थावर प्राणियों में सुख की अभिलाषा होती है, इसे जाने।
चूणिकार ने इसका अर्थ भिन्न प्रकार से किया है। एकेन्द्रिय आदि जीवों को जानने वाला ज्ञाता सब जीवों को अपनी आत्मा के तुल्य समझे और उनके सुख-दुःख की प्रतिलेखना करे । वह यह जाने कि जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही सभी जीवों को दुःख प्रिय नहीं है । इसके आधार पर जो अपने लिए प्रिय नहीं है, वह दूसरों के लिए न करे । यही सम्यग् प्रतिलेखना है।'
वृत्तिकार की व्याख्या इस प्रकार है----
बह विवेकी मनुष्य यथार्थ को जानकर यह विचार करे कि अस और स्थावर जीव सुख कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? इसका आशय यह है कि सभी प्राणियों को सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय । सुखाभिलाषी प्राणियों को दुःख देने से कभी सुख नहीं मिलता।
आयारो २०५२ में भी यही पद प्रयुक्त है-भूएहिं जाण पडिलेह सातं । वहां हमने इसका अर्थ इस प्रकार किया है---तू जीवों (के कर्म बंध और कर्म विपाक को) जान और उनके सुख (दुःख) को देख ।
ये व्याख्याएं भिन्न-भिन्न हैं किन्तु इनके तात्पर्यार्थ में कोई विशेष अन्तर नहीं है। जो पुरुष यह जान लेता है कि सभी प्राणियों में सुख की आकांक्षा होती है, वह फिर किसी प्राणी को कष्ट नहीं दे सकता । यही इसका प्रतिपाद्य है।
श्लोक २० : ७२. अपने कर्मों से बंधे हुए (कम्मी)
चूर्णिकार ने इसका अर्थ कर्म वाले और वृत्तिकार ने 'पापी' किया है।' ७३. आत्मगुप्त भिक्ष (आयगुत्ते)
चूणिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं -(१) आत्मा में गुप्त, (२) स्वयं गुप्त (३) मन, वचन और शरीर से गुप्त । मन, वचन और शरीर में आत्मा का उपचार कर इन्हें भी आत्मा कहा जाता है।
वृत्तिकार ने मन, वचन और काया से गुप्त व्यक्ति को आत्मगुप्त माना है।' ७४. त्रस जीवों को ......... संयम करे (दलृ तसे य प्पडिसाहरेज्जा)
चुणिकार ने इसके द्वारा ईर्या समिति का ग्रहण किया है। मुनि चलते समय ईा समिति का ध्यान रखे। वह बस या स्थावर प्राणियों को देखकर संयम करे, अपने शरीर का संकुचन या प्रसारण करे।
वृत्तिकार का अर्थ सर्वथा भिन्न है-मुनि त्रस या स्थावर प्राणियों को जानकर उनके घात की क्रिया से निवृत्त हो जाए। १. चूणि, पृ० १५६ : भूतानि एकेन्द्रियादीनि, जानीत इति जानकः, स जानको अत्तोवमेण भूतेसु सातऽसातं पडिलेहेहि, 'जध मम ण
पियं दुक्खं जाणिय एमेव सव्वसत्ताणं ।' (दश० ति० गा० १५६) एवं मत्वा यदात्मनो न प्रियं तद् भूतानां
न करोति । २. वृत्ति, पत्र १६१ : सदसद्विवेकी यथावस्थिततत्त्वं गृहीत्वा बसस्थावर तैः-जन्तुभिः कथं साम्प्रतं-सुखमवाप्यत इत्येतत् प्रत्युपेक्ष
जानीहि-अवबुझ्यस्व, एतदुक्तं भवति-सर्वेऽप्यसुमन्तः सुखैषिणो दुःखद्विषो, न च तेषां सुखैषिणां दुःखोत्पाद
कत्वेन सुखावाप्तिभवतीति । ३. आयारो, पृ०८१। ४, चूणि, पृ० १५६ : कर्माण्येषां सन्तीतिः कर्मिणः ।
(ख) वृत्ति, पत्र १६१ : कर्माण्येषां सन्तीति कमिणः-सपापा इत्यर्थः । ५. चूणि, पृ० १५६ : आतगुत्तो णाम आरमसुगुतः स्वयं वा गुप्तः काय-वाङ्-मन:स्वात्मोपचारं कृत्वाऽपदिश्यते आतगुत्ते ति । ६. वृत्ति, पत्र १६१ : आत्मा गुप्तो यस्य सोऽयमात्मगुप्तो मनोवाक्कायगुप्त इत्यर्थः । ७. चूणि, पृ० १५६ : पडिसाहरेज्ज त्ति इरियासमिती गहिता, अतिक्कमे संकुचए पसारए। ८. वृत्ति, पत्र १६१: दृष्ट्वा च बसान् चशब्दात् स्थावरांश्च दृष्ट्वा' परिज्ञाय तदुपधातकारिणी क्रियां 'प्रतिसंहरेत्' निवर्तयेदिति ।
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