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सूयगडो १
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अध्ययन ४: टिप्पण ६६-६७ चाहा । अनेक प्रकार के प्रलोभन दिए जाने पर भी दत्त उस गणिका में आसक्त नहीं हुआ। उस गणिका ने कहा- 'मैं दुर्भागिनी हूं। मेरे जीने का प्रयोजन ही क्या है ? तुम मुझे नहीं चाहते अतः मैं अग्नि में प्रविष्ट होकर अपने आपको भस्म कर दूंगी।' दत्त ने कहा-'यह माया है । यह कामतंत्र में उल्लिखित है।' वह जो कहती, दत्त यही कहता कि यह सारा चरित्र कामशास्त्र में उल्लिखित है । गणिका ने कहा- मैं अग्नि में प्रविष्ट होकर जल मरूंगी।' चिता तैयार की गई। गणिका उस चिता के बीच बैठ गई । चिता में आग लगा दी। सबने समझा कि गणिका जल गई। किन्तु जिस स्थान पर चिता रची गई थी, वहां पहले से ही एक सुरंग खुदवा दी थी। गणिका उस सुरंग से अपने घर पहुंच गई। दत्त ने कहा-यह कामशास्त्र में आ चुका है। मैं पहले से ही जानता था । दत्त यह कहता रहा। धूतों ने उसे उठाकर चिता में डाल दिया।
श्लोक २६
६६. श्राविका होने के बहाने (सावियापवाएणं)
इसका अर्थ है-श्राविका के मिष से । श्राविकाओं का विश्वास होता है । कुछ स्त्रियां नीषिधिका का उच्चारण कर उपाश्रय में प्रवेश करती हैं और साधु को वन्दन कर पास में बैठ जाती हैं। अथवा कोई संन्यासिनी या सिद्धपुत्री वहां मुनि के पास आकर कहती है-- आप संन्यासी हैं, मैं संन्यासिनी हूँ । इस प्रकार मैं आपकी सामिका हूं । यह कहकर वह मुनि के निकट बैठती है और फिर मुनि का स्पर्श करने लगती है।'
वृत्तिकार के अनुसार- कोई स्त्री श्राविका के मिष से मुनि के निकट आकर कहती है मैं श्राविका हूं इसलिए आप श्रमणों की मैं सामिका हूं। यह कहकर वह मुनि के अति निकट आती है और उसे संयमच्युत कर देती है। यह कहा गया है कि ब्रह्मचारी के लिए स्त्री-संग महान अनर्थकारी होता है -
तज्ज्ञानं तच्च विज्ञान, तत् तपः स च संयमः । सर्वमेकपदे भ्रष्टं, सर्वथा किमपि स्त्रियः ।।
ज्ञान, विज्ञान, तप और संयम-ये सब स्त्री के सहवास से सहसा भ्रष्ट हो जाते हैं।'
श्लोक २८:
६७. (पुट्ठा.......... पावं ति)
जब आचार्य शिष्य को पाप-कर्म से उपरत रहने की प्रेरणा देते हैं तब शिष्य कहता है-मैं ऊंचे कुल में उत्पन्न हुआ है। मैं ऐसा पापकारी कार्य नहीं कर सकता। यह स्त्री मेरी बेटी के समान है। यह मेरी बहिन या पौत्री है। मेरी प्रवज्या से पूर्व तक यह मेरी गोद में ही सोती थी। पूर्व अभ्यास के कारण यह पर्यंक को छोड़कर मेरे पास सो रही है। मैं संसार के स्वरूप को जानता हूं। मैं ऐसा अकार्य कभी नहीं करूंगा, चाहे फिर मेरे प्राण ही क्यों न निकल जाएं।'
१. चुणि, पृ० ११३ : श्राविकासु विथम्भ उत्पद्यते, नीषिधिकयाऽनुप्रविश्य वन्दित्वा विश्रामणालक्षेण सम्बाधनादि क्यवारकवत् । काइ
तु लिगत्थिगा सिद्धपुत्ती वा भणति--अधं साधम्मिणी तुभं ति, स एवपासन्नवतिनीभिः श्लिष्यते । २. वृत्ति, पत्र ११३ : साविया - अनेन प्रवादेन व्याजेन साध्वन्तिकं योषिदुपसत् यथाऽहं श्राविकेतिकृत्वा युष्माकं श्रमणानां सामि
णीत्येव प्रपञ्चेन नेदीयसी मूत्वा कलवालुकमिव साधु धर्माद् भ्रंशयति, एतदुक्तं भवति-योषित्सान्निध्यं ब्रह्म
चारिणां महतेऽनय, तथा चोक्तम् -तज्ज्ञानं तच्च विज्ञानं .. . .....। ३. (क) चूणि, पृ० ११३ : एषा हि मम दुहिता भगिनी नप्ता वा । अड्के शेत इति अङ्कशायिनी, पूर्वाभ्यासादेवैषा मम अड्के शेते
निवार्यमाणा पर्यके वा। (ख) वत्ति, पत्र ११३ : आचार्यादिना चोद्यमाना एवमाहु वक्ष्यमाणमुक्तवन्तः तद्यथा -- नाहमेवम्भूतकुलप्रसूतः एतदकार्य पापो
पादानभूतं करिष्यामि, ममैषा दुहितृकल्पा पूर्वम् अङ्केशयिनी आसीत् तदेषा पूर्वाभ्यासेनैव मय्येवमाचरति न पुनरहं विदितसंसारस्वभावः प्राणात्ययेऽपि व्रतभङ्ग विधास्य इति ।
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