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सूयगडो १
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अध्ययन ४: टिप्पण ६३-६५ ६३. कहा गया है (सुयक्खाय)
वैशिकणास्त्र में स्त्री के विषय में कहा गया है'-'दर्पण में प्रतिबिम्बित बिम्ब जिस प्रकार दुर्गाह्य होता है, उसी प्रकार स्त्री का हृदय भी दर्गाह्य होता है । पर्वत-मार्ग पर स्थित दुर्ग जिस प्रकार विषम होता है, वैसी ही विषम होती है स्त्री की भावना । उसका चित्त कमल पत्र पर स्थित पानी की बूंद की भांति चंचल होता है। वह कहीं एक स्थान पर स्थिर नहीं होता। जिस प्रकार विष-लताएं विषांकुरों के साथ बढ़ती हैं, वैसे ही स्त्रियां दोषों के साथ बढ़ती हैं।'
'अच्छी तरह से परिचित, अच्छी तरह से प्रिय और अच्छी तरह से विस्तृत होने पर भी अटवी और महिला में कभी विश्वास नहीं करना चाहिए।'
'समूचे संसार में ऐसा कोई भी आदमी हो जो स्त्री की कामना करते हुए दु:खी न हुआ हो, वह अपनी अंगुली ऊंची करे।'
'स्त्रियों की यह प्रकृति है कि वे सभी में वैमनस्य पैदा कर देती हैं। जिससे इनकी कामना पूरी होती है, उसके साथ वैमनस्य नहीं करतीं। ६४. (एयं पिता....... अवकरेंति)
स्त्री वाणी से यह स्वीकार करती है कि मैं ऐसा अकार्य आगे नहीं करूंगी, किन्तु आचरण में फिर वैसा ही करती है। अथवा अनुशास्ता के सम्मुख वैसा अकार्य न करने का वादा करती है और फिर उसी अकार्य में रस लेने लगती है। यही स्त्रीस्वभाव है।
श्लोक २४ : ६५. विश्वास न करे (ण सद्दहे)
चूर्णिकार और वृत्तिकार ने यहां एक कथा प्रस्तुत की है'
एक गांव में दत्त नाम का व्यक्ति रहता था। वह कामशास्त्र का ज्ञाता था। एक गणिका ने उसे अपने फंदे में फसाना १. (क) चूणि, पृ० ११२ : दुर्गाह्य हृदयं यथैव वदनं यद् वर्पणान्तर्गतं,
भावः पर्वतमार्गदुर्गविषमः स्त्रीणां न विज्ञायते । चित्तं पुष्करपत्रतोयचपलं नैकत्र सन्तिष्ठते, नार्यो नाम विषाङकुरैरिव लता दोषैः समं वद्धिताः ॥१॥ सुट्ठ वि जितासु सुठ्ठ वि पियासु सुट्ट वि य लद्धपसरासु । अडईसु य महिलासु य वीसंभो भे कायव्वो ॥२॥ हक्खुवउ अंगुलि ता पुरिसो सम्वम्मि जीवलोअम्मि । कामेंतएण लोए जेण ण पत्तं तु वेमणसं ॥३॥ अह एताण पगतिया सम्बस्स करेंति वेमणस्साई ।
तस्स ण करेज्ज मंतु जस्स अलं चेय कामतंतएण ॥४॥ (ख) वृत्ति, पत्र ११२। २. (क) चूणि, पृ० ११२ : यदा तु प्रस्थिता निवारिया भवति-मैवं कार्षीः तदा न भूयः करिष्यामि इति एवं पि वदित्ताणं अध पुण
कम्मुणा अवकरेंति, अपकृतं नाम यद् ययोक्तं यथा प्रतिपन्नं वा न कुर्वन्ति । (ख) वृत्ति, पत्र ११२ : अकार्यमहं न करिष्यामीत्येवमुक्त्वापि वाचा 'अदुव' त्ति तथापि कर्मणा-क्रियया 'अपकुर्वन्ति' इति
विरूपमाचरन्ति, यदि बा अग्रतः प्रतिपद्यापि शास्तुरेवापकुर्वन्तीति । ३. चूणि, पृ० ११२ : दत्तो वैशिकः किल एकया गणिकया तैस्तैः प्रकारेनिमन्त्रीयमाणोऽपि नेष्टवान् तदाऽसावुक्तवती-त्वत्कृतेऽग्नि
प्रविशामीति । तदाऽसौ यद तद् तयोच्यते तत्र तत्रोत्तरमाह एतदप्यस्ति वैशिके । तदाऽसौ पूर्वसुरङ्गामुखे काष्ठसमूहं कृत्वा तं प्रज्वाल्य तत्रानुप्रवेश्य सुरुङ्गया स्वगृहमागता। दत्तकोऽपि च एतदप्यस्ति वैशिके। एवं विल
पन्नपि धूतत्तिकैश्चितकायां प्रक्षिप्तः । (ख) वृत्ति, पत्र ११२।
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