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________________ सूयगडो २०8 अध्ययन ४: टिप्पण ६०-६२ कंठ-भाग युवक के गले में लगा रहा । लोग आए । स्त्री ने कहा-मैंने इसकी मूर्छा मिटाने के लिए जल सींचा और ऐसा घटित हो गया । सारे लोग चले गए । तब वह युवक से बोली-'युवक ! क्या तुमने वैशिक (कामशास्त्र) के अध्ययन से स्त्री-स्वभाव का पूरा ज्ञान कर लिया ? स्त्री-स्वभाव को जानने में कौन समर्थ हो सकता है ? स्त्री का चरित्र दुर्विज्ञेय होता है । उसमें कभी विश्वास नहीं करना चाहिए । युवक वहां से चला गया।' श्लोक २२ ६०. पाप-परदारगमन (पाव) ___ चूर्णिकार ने यहां पाप का अर्थ मैथुन या परदारगमन किया है। वृत्तिकार ने पाप का अर्थ पापकारी कर्म किया है। और अठाइसवें श्लोक में पाप का अर्थ मैथुन का आसेवन किया है।' ६१. श्लोक २१, २२: इन दोनों श्लोकों की व्याख्या में चूर्णिकार ने तीन विकल्प प्रस्तुत किए हैं। प्रथम विकल्प में व्यभिचारी स्त्री और पुरुषदोनों को अनेक प्रकार के कष्टों का सामना करना पड़ता है, यह प्रतिपाद्य है। दूसरी वैकल्पिक व्याख्या इस प्रकार है कोई पुरुष व्यभिचारिणी स्त्री से कहता है-'तूने यह काम किया।' वह कहती है-मेरे जीवित अवस्था में ही हाथ-पैर काट लो, किन्तु ऐसा आरोपात्मक वचन मत बोलो । चाहे तुम मेरी चमड़ी उधेड़ दो, मेरा मांस नोंच लो, किन्तु अयथार्थ बात मत कहो । मुझे चाहे तुम उबलते हुए तेल के कडाह में डाल दो, या मेरे शरीर को तप्त संडासी से दाग दो या मुझे कड़ाही में पका दो या मेरे शरीर को काटकर उस पर नमक छिड़क दो या मेरे कान, नाक या कंठ काट दो, किन्तु दूसरी बार ऐसी बात मत कहना । मेरे पर लगाया जाने वाला यह झूठा आरोप सभी वेदनाओं से बढ़कर है। तीसरा विकल्प इस प्रकार है-- अभिशप्त होने पर वह कहती है चाहे मेरे हाथ-पैर काट लो, चाहे मेरी चमड़ी उधेड़ दो, मांस काट लो, मुझे कड़ाह में उबाल दो, तुणों में मुझे लपेट कर अग्नि लगा दो, शस्त्र से या अन्य प्रकार से मेर शरीर को काटकर उसमें नमक भर दो और चाहो मेरे कान, नाक ओठ, काट दो। मैं इस पुरुष को नहीं छोडूंगी। यह मेरे लिए बहुत मनोनुकूल है। मैं भी इसके लिए मनोनुकूल हूं। मैं इसके बिना एक क्षण भी नहीं जी सकती। वह मेरे वश में है, तुम जो चाहो करो।' श्लोक २३ : ६२. स्त्रीवेद (कामशास्त्र) (इत्थीवेदे) इसका अर्थ है-वैशिकशास्त्र । वह शास्त्र जिसमें स्त्री के स्वभाव आदि का वर्णन हो ।' देखें ४।१६ में 'इत्थीवेय' का टिप्पण । १.(क) चूणि, पृ० ११०, १११ । (ख) वृत्ति, पत्र १११ । २. चूणि, पृ० १११ : पापं तदेव परदारगमनं तत्राऽऽसक्ताः । ३. वृत्ति, पत्र ११२ : पापेन-पापकर्मणा । ४. वृत्ति, पत्र ११३ : मैथुनासेवनादिकम् । ५. चूणि, पृ० १११ । ६. (क) चूणि, पृ० १११ : इत्थिवेदो नाम वैशिकम् । (ख) बत्ति, पत्र ११२ : स्त्रियं यथावस्थितस्वभावतस्तत्सम्बन्धविपाकतश्च वेदयति-ज्ञापयतीति स्त्रीवेदो-वैशिकादिकं स्त्रीस्वभावाविर्भावकं शास्त्रमिति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education Intemational
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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