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________________ सूयगडो १ ७०. असंयम का आकांक्षी (विसण्णेसी) ६८. मूढ़ की यह दूसरी मंदता है ( बालस्स मंदयं बीयं) मूढ़ व्यक्ति की यह दूसरी मंदता है । मंदता का अर्थ है - अल्पबौद्धिकता । जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य व्रत का भंग करता है - यह उसकी पहली मंदता है और वह उस पाप को नकारता है - यह उसकी दूसरी मंदता है ।" ६६. पूजा का इच्छुक (पूयणकामो) इसका अर्थ है-- सत्कार पुरस्कार का अभिलाषी । यह अकार्य के अपलाप का एक मुख्य कारण है । वह सोचता है कि मेरा अकार्य प्रगट हो जाने से लोगों में मेरी निन्दा होगी, अतः इसका अपलाप करना ही अच्छा है। वह अपने अकार्य पर पर्दा डाल देता है ।" विषण्ण का अर्थ है- असंयम । जो असंयम की एषणा करता है, वह 'विसण्णेसी' कहलाता है | श्लोक ३१ : ७१. नीवार ( णीवार ) चूर्णिकार ने यहां 'निकिर' शब्द को स्वीकार कर उसका अर्थ प्रलोभन में डालने वाली वस्तु किया है । लिए घास, सूअर के लिए कणमिश्रित भूसा और मछली के लिए खाद्य-युक्त कांटा प्रलोभन का हेतु होता है, वैसे ही वस्त्र आदि पदार्थ प्रलोभनकारी होते हैं । * देखें-- ३।३६ का टिप्पण । २१२ श्लोक २६ : २. वृत्ति, पत्र ११३ : पूजनं ३. (क) चूर्ण, पृ० ११३ ७२. मोह में (मोहं) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-संसार किया है ।" वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है - चित्त की व्याकुलता, किंकर्तव्यमूढ़ता ।' १. (क) वृति, ११३ बालस्य अशस्य रागद्वेषाकुलितस्यापरमादृश एतद्वितीयं मान्य असत्यम् एक तावदकार्यकरणेन चतुर्थ तो द्वितीयं तपन मृषावादः । (ख) वृत्ति, पत्र ११४ (ख) चूणि, पृ० ११३ : द्वाभ्यामाकलितो बालो । मंदो दध्वे य भावे य, दव्वे शरीरेण उपचयाऽपचये, भावमन्दो मन्दबुद्धी अल्पबुद्धिरित्यर्थः । मन्दता नाम अबलतेव । कोऽर्थः ? तस्य बालस्य बितिया बालता यदसौ कृत्वाऽवजानाति नाहमेवंकारीति, ण वा एवं जाणामि । ४. (क) णि, पृष्ठ ११४ अध्ययन ४ : टिप्पण ६८-७२ : Jain Education International सत्कारपुरस्कारस्तत्काम:- तदभिलाषी मा मे लोके अवर्णवादः स्यादित्यकार्यं प्रच्छादयति । विष्णो अजमो तमसेति विससी । विषण्ण:- असंयमस्तमेषितुं शीलमस्येति विषण्णैषी । : निकरणं निकीर्यते वा निकिरः, यदुक्तं भवति निकोर्यते गोरिव चारी, जधा वा सूकरस्स घण्णकुंडगं कुडादि णिगिरिज्जति पुट्ठो य वहिज्जति, गलो वा मत्स्यस्य यथा क्रियते, एवमसावपि मनुष्यशूकरकः वस्त्रादिनिकिरणेन णिमंतिज्जति । जैसे- गाय के मनुष्य के लिए ५. चूर्णि पृष्ठ ११४ ६. वृत्ति पत्र ११४ मोहं गच्छति कर्तव्यतामूढो भवति । (ख) वृत्ति, पत्र ११४ : णीवार इत्यादि एतद्योषितां वस्त्रादिकमामन्त्रणं नीवारकल्पं बुध्येत जानीयात् यथा हि नीवारेण केनचिद् भक्ष्य विशेषेण सूकरादिर्वशमानीयते एवमसावपि तेनामन्त्रणेन वशमानीयते । मोहः संसारः। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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