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________________ सूडो ७४. चारित्र से भ्रष्ट (भेयमावण्णं ) ७३. राग-द्वेष से मुक्त (ओए) ओज दो प्रकार का है-द्रव्य ओज और भाव ओज । परमाणु असहाय या अकेला होने के कारण द्रव्य ओज कहलाता है। भिक्षु राग-द्वेष से रहित और अकेला होने के कारण भाव ओज कहलाता है।' 'ओज' पद का शाब्दिक अर्थ 'विषम' है ।' प्रस्तुत प्रकरण में इसका अर्थ अकेला है । २१३ श्लोक ३२ : इलोक ३३: भेद चार प्रकार का होता है- १. चारित्र भेद २ जीवित-भेद ३. शरीर-भेद और ४. लिंग-भेद । प्रस्तुत प्रकरण में चारित्र-भेद गृहीत है ।" ७५. कामासक्त ( काममइबट्टू ) वृत्तिकार के अनुसार इसमें तीन शब्द हैं काम, मति और वर्त । काम का अर्थ है - इच्छारूप काम या मदनरूप काम मति का अर्थ है - बुद्धि या मन । वर्त्त का अर्थ है-वर्तन करना, प्रवृत्ति करना। पूरे पद का अर्थ है - कामाभिलाषुक । किन्तु हमने 'अइब" पद की व्याख्या की है। पूर्णिकार ने 'अ' का अर्थ अति अति वर्तमान किया है।" ७६. वश में (पलिभिदियाण) चूर्णिकार ने इसका अर्थ किया है-याद दिलाकर । वृत्तिकार ने इसका मुख्य अर्थ - जानकर और वैकल्पिक अर्थ - याद दिलाकर किया है । वृत्तिकार का कथन है कि वह स्त्री यह जान लेती है कि यह पुरुष मेरा वशवर्ती हो गया है। मैं काला कहूंगी तो यह भी काला कहेगा और मैं श्वेत कहूंगी तो यह भी श्वेत कहेगा ।" चूर्णिकार और वृत्तिकार ने अपने अर्थ को इस प्रकार स्पष्ट किया है वह स्त्री उस पुरुष से कहती है देखो, मैंने अपना सर्वस्व तुम्हें दे डाला । अपने आपको भी समर्पित कर दिया। मैंने तुम्हारे लिए स्वजन वर्ग की अवहेलना की। अब मैं न इधर की रही और न उधर की। मेरा इहलोक भी बिगड़ा और परलोक भी बिगड़ा। तुम भी कोरे ठूंठ जैसे हो। तुम अपनी मर्यादा जीर जाति को भी ध्यान में नहीं रखते। अपने आपको स्वयं जानो। मैंने तुम्हें छोड़कर क्या कभी किसी दूसरे का कोई काम किया है ? तुम लुंचित शिर हो। तुम्हारा शरीर पसीने और मैल से भरा हुआ है वह है तुम्हारे कांस छाती और वस्तिस्थान में जूंओं का निवास है। मैंने कुल, शील, मर्यादा और लज्जा को छोड़कर तुम्हें अपना शरीर अर्पित किया, फिर भी तुम मेरी उपेक्षा करते हो। यह सुनकर उस स्त्री को कुपित जानकर वह विषयासक मनुष्य उसको विश्वास दिलाने के लिए उसके पैरों में गिर पड़ता है । तब वह कुछ दूर हटती हुई दूर हटो, मेरा सर्श मत करो ऐसा कहती हुई अपने बाएं पैर से उसके तिर पर प्रहार करती है । Jain Education International १. (क) चूर्णि, पृष्ठ ११४ : द्रव्यौजो हि असहायत्वात् परमाणुः । भावोजो राग-दोसरहितो । (ख) वृत्ति, पत्र ११४ : एको रागद्वेषवियुतः । २. चूर्णि, पृष्ठ ११४ : ओजो विषमः । ३. चूर्णि, पृष्ठ ११५ : भावभेदं चरित्रभेदमावण्णं, ण तु जीवितभेदं शरीरभेदं लिंगभेदं वा । मदभ्युपगतः अध्ययन ४ : टिप्पण ७३-७६ - ४. वृत्ति, पत्र ११५ : कामेषु - इच्छामदनरूपेषु मतेः बुद्धेर्मनसो वा वर्तो-वर्तनं प्रवृत्तिर्यस्यासौ काममतिवर्तः कामाभिलाषुक इत्यर्थः । अतिबट्ट् ५. पूर्ण पृष्ठ ११५ ६. चूणि, पृष्ठ ११५ : पलिभिदियाण पडिसारेऊण । ७. वृत्ति पत्र ११५ : परिमिद्य अतिगतं अतिवत्तमाणं । यदि वा परिभिद्य परिसार्य । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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