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________________ आमुख प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'उपसर्गपरिज्ञा' है।' जब मुनि अपनी संयम-यात्रा प्रारम्भ करता है तब उसके समक्ष अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग उपस्थित होते हैं । उन उपसर्गों को समतापूर्वक सहने की क्षमता वाला मुनि अपने लक्ष्य को पा लेता है और उनसे पराजित हो जाने वाला मुनि लक्ष्यच्युत होकर विनष्ट हो जाता है । इसलिये मुनि को उपसर्गों के प्रकारों, उनकी उत्पत्ति के सामान्यविशेष निमित्तों तथा उपसर्ग-विजय के उपायों का ज्ञान होना चाहिए। इस अध्ययन में उपसर्ग और परीसह-दोनों का निरूपण है। चूणिकार ने बताया है उपसर्ग और परीसह की एकत्व की विवक्षा कर, दोनों के लिये 'उपसर्ग' शब्द व्यवहृत किया है।' उपसर्ग का अर्थ है-उपद्रव । स्वीकृत मार्ग पर अविचल रहने तथा निर्जरा के लिये कष्ट सहना परीसह है। उत्तराध्ययन सूत्र के दूसरे अध्ययन में बावीस परीसहों (उपसर्गों) का उल्लेख है। प्रस्तुत अध्ययन में इस संख्या का उल्लेख नहीं है, किन्तु अनेक उपसर्गों का विस्तार से वर्णन प्राप्त है० शीत (श्लोक ४) ० आक्रोश (श्लोक ६-११) ० उष्ण (श्लोक ५) ० स्पर्श (श्लोक १२) ० याचना (श्लोक ६,७) • केशलुंचन-ब्रह्मचर्य (श्लोक १३) • वध (श्लोक ८) ० वध-बंध (श्लोक १४-१६) इन शारीरिक उपसर्गों के अतिरिक्त सूत्रकार ने मानसिक उपसर्गों के प्रसंग में इस तथ्य का सांगोपांग निरूपण किया है कि संयम में आरूढ मुनि को उसके ज्ञातिजन या अन्य व्यक्ति किस प्रकार भोग भोगने के लिये निमन्त्रित करते हैं और किस प्रकार उसे पथच्युत कर पुनः गृहवास में आने के लिये प्रेरित करते हैं। जो मुनि उन ज्ञातिजनों के इस भोगनिमन्त्रण रूप अनुकूल उपसर्ग के जाल में फंस जाते हैं, वे कामनाओं के वशवर्ती होकर संसार की वृद्धि करते हैं। बौद्ध साहित्य में भी परीसहों के वर्जन का उल्लेख है। सारिपुत्र ने भगवान् बुद्ध से भिक्षु-जीवन का मार्ग-दर्शन मांगा। बुद्ध ने उस प्रसंग में अनेक परीसहों (पालि० परिस्सया) का उल्लेख किया है। उनमें रोग, क्षुधा, शीत, उष्ण, अरति, परिदेवन, अलाभ, याचना, शय्या, चर्या आदि मुख्य हैं।' प्रस्तुत अध्ययन के चार उद्देशक तथा बयासी श्लोक हैं। उनकी विषयगत मार्गणा इस प्रकार है० पहला उद्देशक-प्रतिलोम उपसगों का निरूपण । (श्लोक ४-१६) • दूसरा उद्देशक-अनुलोम उपसर्गों का निरूपण । (श्लोक १८-३६) ० तीसरा उद्देशक-अध्यात्म में होने वाले विषाद के कारण और निवारण का निरूपण तथा परतीथिकों की कछेक मान्यताओं का प्रतिपादन । (श्लोक ४३ आदि) १. (क) चूर्णि, पृ० ७७ : इदाणि उवसग्गपरिणत्ति अझयणं । (ख) वृत्ति, पत्र १०२ : उपसर्गपरिज्ञायाः......... । २. चूर्णि, पृ० ७६ : तत्थोवसग्गा परोसहा य एगं चेव काउं उवदिस्संति । ३. सूयगडो, अध्ययन २, उद्देशक २ । ४. सुत्तनिपात ५४, सारिपुत्त सुत्तं, ६-१८ । प्रस्तुत प्रसंग में बाधा-विघ्न के अर्थ में 'परिस्सय' शब्द प्रयुक्त हुआ है-कति परिस्सया (६)। विक्खंभये तानि परिस्सयानि (१५) । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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