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सूयगडो १
अध्ययन ३ : प्रामुख ० चौथा उद्देशक-कुतीथिकों के कुतर्को से पथच्युत होने वाले व्यक्तियों की यथार्थ अवस्था का निरूपण ।' (श्लोक
४७-६०) सूत्रकृतांग की नियुक्ति में उपसर्गों के छह प्रकार निर्दिष्ट हैं१. नाम उपसर्ग
४. क्षेत्र उपसर्ग २. स्थापना उपसर्ग
५. काल उपसर्ग ३. द्रव्य उपसर्ग
६. भाव उपसर्ग। द्रव्य उपसर्ग
चेतन द्रव्य उपसर्ग-तिर्यञ्च और मनुष्य द्वारा अपने अवयवों से चोट लगाना। अचेतन द्रव्य उपसर्ग- मनुष्य द्वारा किसी को लाठी आदि से पीटना । द्रव्य उपसर्ग के दो वैकल्पिक प्रकार ये हैं- आगन्तुक और पीड़ाकर ।'
चूर्णिकार के अनुसार तिर्यञ्चों और मनुष्यों द्वारा उत्पादित उपसर्ग आगन्तुक कहलाते हैं और वात, पित्त तथा कफ से उत्पन्न उपसर्ग पीड़ाकर कहलाते हैं।"
वृत्तिकार रे 'आगन्तुको च पीलाकरो' की व्याख्या भिन्न प्रकार से की है। उन्होंने 'पीड़ाकर' शब्द को 'आगन्तुक' का विशेषण मानकर इसका अर्थ-देव आदि से उत्पन्न उपसर्ग जो शरीर और संयम के लिये पीड़ाकर होता है-किया है। किन्तु यह विमर्शनीय है। क्षेत्र उपसर्ग
क्षेत्र से होने वाला उपसर्ग । जैसे किसी क्षेत्र में क्षेत्र सम्बन्धी भय उत्पन्न होता है। चूर्णिकार ने लिखा है कि जब भगवान् महावीर छद्मस्थ अवस्था में 'लाट' (लाड) क्षेत्र में गये तब वहां कुत्तों के अनेक उपसर्ग हुए।' यह उदाहरण चेतन द्रव्य उपसर्ग के अन्तर्गत भी आ सकता है। काल उपसर्ग
काल से संबंधित अनेक प्रकार के उपसर्ग उत्पन्न होते हैं । जैसे काल-चक्र के छठे अर-एकांत दुष्षमा में सदा दुःख प्रवर्तमान रहता है । इस अर में उत्पन्न होने वाले प्राणी अत्यन्त दुःख का अनुभव करते हैं। अथवा शीतकाल में अत्यधिक सर्दी का और ग्रीष्मकाल में अत्यधिक गर्मी का उपसर्ग सदा बना रहता है।' भाव उपसर्ग
इसके दो प्रकार हैं
१. नियुक्ति गाथा, ४१-४२ : पड मम्मि य पडिलोमा मायादि अणुलोयगा य बितियम्मि ।
ततिए अज्झत्थुवदसणा य परवादिवयणं च ॥ हेउसरिसेहिं अहेउएहि ससमयपडितेहि णिउणेहि ।
सोलखलितपण्णवणा कया चउत्थम्मि उद्देसे ॥ २. नियुक्ति गाथा, ४३-४४ । ३. नियुक्ति गाथा, ४३ : आगंतुको य पीलाकरो य जो सो उवस्सग्गो। ४. चूणि, पृ० ७७ : आगंतुको चतुप्पदलउडादीहि । पीलाकरो धातिय-पेत्तियादि । ५. वृत्ति, पत्र ७८ : अपरस्माद् दिव्यादेः आगच्छतीत्यागन्तुको योऽसावुपसर्गो भवति, स च देहस्य संयमस्य वा पीडाकारीति। ६. चूणि, पृ० ७७-७८ : जधा बहूपसग्गो लाढाविषयो जहिं भट्टारगो पविट्ठो आसि छतुमत्थकाले, सुणगादिहिं तत्थ णिद्धम्मा
खाति। ७. चूणि, पृ० ७८ : कालोवसग्गो एगंतदूसमा । सीतकाले वा सीतपरिसहो वा णिदाघकाले उसिणपरीसहो वा, एवमादि कालोवसग्गो
भवति ।
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