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________________ सूयगडो १ १३१ अध्ययन ३ : प्रामुख (क) अधिक भाव उपसर्ग - ज्ञानावरणीय दर्शनमोहनीय, अशुभनामकर्म, नीचगोन, अन्तराय कर्म के उदय से होने वाला उपसर्ग | (ख) औपक्रमिक भाव उपसर्ग - दंड, शस्त्र आदि से उदीरित वेदनीय कर्म द्वारा उत्पन्न उपसर्ग ।' -- स्थानांग सूत्र में उपसमों के चार मुख्य भेद माने हैं (१) दैविक (२) मानुषिक (३) तैरश्मिक (४) आत्मसंवेदनीय इन चारों के अवान्तर भेद चाद-चार हैं।" उपसर्ग का यह अन्तिम विभाग 'आत्म-संवेदनीय' बहुत महत्वपूर्ण है। मनुष्य के दुःखों का हेतु बाहर ही नहीं है, वह उसके भीतर भी है । कर्मों के उदय से उसके कर्मशरीर में अनेक प्रकार के रासायनिक परिवर्तन होते हैं और वे वात, पित्त और कफ को प्रभावति करते हैं। उनसे ग्रन्थियां प्रभावित होती हैं। उस प्रभावित अवस्था में होने वाले ग्रन्थियों के स्राव मनुष्य में विविध प्रकार की अवस्थाएं पैदा करते हैं। उनसे मनुष्य का सारा व्यवहार प्रभावित होता है । आत्म-संवेदनीय उपसर्ग के वैकल्पिक रूप में वातिक, पैत्तिक, श्लेष्मिक और सान्निपातिक – ये चार प्रकार बन जाते हैं। इस अध्ययन में अनुकूल परीग्रहों का सुन्दर चित्रण हुआ है। कोई व्यक्ति प्रव्रजित होने के लिये उद्यत है अथवा कोई पहले ही प्रव्रजित हो चुका है, उसके समक्ष माता-पिता, बन्धु या स्नेहिल व्यक्ति इस प्रकार स्नेह और अनुराग प्रदर्शित करते हैं कि उसके मन में करुणा का भाव जाग जाता है और वह उनके स्नेहसूत्र में बंध जाता है। इस प्रसंग में सूत्रकार ने 'सुहमा संगा' शब्दों का प्रयोग किया है। संग, विघ्न और व्याक्षेप तीनों एक हैं। ये सूक्ष्म होते हैं, प्राणीवध की भांति स्थूल नहीं होते। यहां सूक्ष्म का अर्थ है - निपुण । ये अनुलोम उपसर्ग व्यक्ति को धर्म-च्युत करते हैं। पूजा, प्रतिष्ठा स्नेह इन उपसर्गों से बच पाना अत्यन्त कठिन होता है । चूर्णिकार ने इन्हें " पाताला व दुरुत्तरा " - पाताल की भांति दुरुत्तर माना है ।' अनुकूल उपसर्ग मानसिक विकृति पैदा करते हैं और प्रतिकूल उपसर्ग शरीर-विकार के कारण बनते हैं। अनुकूल उपसर्ग सूक्ष्म होते हैं और प्रतिकूल उपसर्गं स्थूल होते हैं । " प्रस्तुत अध्ययन में आजीवक, बौद्ध तथा वैदिक परंपरा की अनेक मान्यताओं का उल्लेख है। पूर्णिकार और वृत्तिकार ने उन मान्यताओं का वर्णन किया है। हमने उनको तुलनात्मक टिपणों के माध्यम से विस्तार दिया है। श्लोक इक्कीस में "एवं लोगो भविस्सई" से लौकिक मान्यता का उल्लेख हुआ है । श्लोक ५१-५५ में आजीवक परंपराभिमत कुछ तथ्य हैं-आजीवक भिक्षु गृहस्थों की थालियों में और कांस्य के बर्तनों में भोजन करते थे । वे अपने पात्रों के प्रति आसक्त रहते थे । जो आजीवक भिक्षु रुग्ण हो जाते, भिक्षा लाने में असमर्थ होते, उन्हें अन्य भिक्षु भिक्षा लाकर नहीं देते थे । वे गृहस्थों द्वारा भोजन मंगवाते थे । श्लोक ६१-६४ में अनेक ऋषि-परंपराओं का उल्लेख है। इनमें सात ऋषिओं के नाम हैं - वैदेही नमि, रामगुप्त, बाहुक, तारागण, आसिल देविल, द्वैपायन और पाराशर । -- १. पूणि, पृ० ७८ भावोवसम्यो कम्मोदयो । सो पुण दुविधो-ओहतो उपस्कगतो या ओहतो जधा मागावरणं वंसत्यमोहणीयं असुमणामं णियागोतं अंतरायिकं कम्मोदयं ति । उवक्कमियं जं वेदणिज्जं कम्मं उदिज्जति । दंड-कस-सत्थरज्जू" २. (क) डा ४/५७-६०१ । (ख) कृषि, १०७८ ३. चूर्णि, पृ० ७८ : आयसंवेतणीया चउविधा अधवा वातिता पेत्तिया संभिया सन्निवाइया । ४. वही, पृ० ८३ ******* Jain Education International मा गाम गिउगा, न प्राणव्यपरोपणवत् स्थूरमूर्तयः उपायेन धर्मात् यावयन्ति ...... भगुलोमा पुन पूजासत्कारादयः.. दुरुत्तरा भवति । वक्ष्यत हि - 'पाताला व दुरुत्तरा ।'संगो त्ति वा वग्धोति वा वक्खोडो त्ति वा एगट्ठ । ५, वत्ति, पत्र ८५ : ते च सूक्ष्नाः प्रायश्चेतोविकारकारित्वेनान्तराः न प्रतिकूलोपसर्गा इव बाहुल्येन शरीरविकारकारित्वेन प्रकटतया बादरा इति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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