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________________ सूयगडो १ अध्ययन १: टिप्पण ५३-५५ यह नहीं कहना चाहिए कि स्कंधों से पुद्गल भिन्न है और यह भी नहीं कहना चाहिए कि स्कंधों से पुद्गल अभिन्न है। चूर्णिकार के अनुसार स्कंधमात्रिक बौद्ध आत्मा को हेतुमात्र मानते थे और शून्यवादी उसे अहेतुक मानते थे। किन्तु मूल सूत्र में सहेतुक और अहेतुक-दोनों का अस्वीकार किया गया है। चूर्णिकार की व्याख्या उत्तरवर्ती परंपराओं के आधार पर की हुई है। पिटकों के आधार पर बौद्ध हेतु और अहेतु-दोनों को अस्वीकार करते हैं । इसके अस्वीकार में ही प्रतीत्य-समुत्पाद का सिद्धान्त विकसित किया गया है । बौद्धों का अभिमत यह है १. यदि आत्मा और जगत् को सहेतुक माना जाए तो शाश्वतवाद की स्थिति बनती है। २. सत्त्वों के क्लेश का हेतु नहीं है, प्रत्यय नहीं है, बिना हेतु और बिना प्रत्यय के ही सत्त्व क्लेश पाते हैं । सत्त्वों की शुद्धि का कोई हेतु नहीं है, कोई प्रत्यय नहीं है, माना जाए तो अहेतुवाद की स्थिति बनती है । ३. प्रकृति, अणु, काल आदि के अनुसार लोक प्रवर्तित है-ऐसा मानने पर विषम हेतुवाद की स्थिति बनती है। ४. लोक ईश्वर, पुरुष, प्रजापति के वशवर्ती है-ऐसा मानना वशवर्तीवाद की स्थिति बनती है। ये चारों विकल्प अमान्य हैं। बौद्ध इसीलिए प्रतीत्य समुत्पादवाद को स्वीकार करते हैं। उनका मानना है कि 'प्रतीत्य' शब्द से शाश्वत आदि वादों का अस्वीकार और 'समुत्पाद' से उच्छेद आदि का प्रहाण किया गया है।' श्लोक १६: ५३. आरण्यक (आरण्णा) अरण्य में रहने वाले तापस आदि । ५४. प्रवजित (पव्यया) वृत्तिकार ने इस शब्द के द्वारा शाक्य आदि भिक्षुओं का और चूर्णिकार ने उदक शौचवादी का ग्रहण किया है।' ५५. इस दर्शन में आ जाता है (इमं दरिसमावण्णा) - इसका अर्थ है-इस दर्शन को प्राप्त । चूणिकार ने 'इस दर्शन' से शाक्य दर्शन अथवा सभी मोक्षवादी दर्शनों का ग्रहण किया है। वृत्तिकार ने पञ्चभूतवादी, तज्जीवतच्छरीरवादी तथा सांख्य आदि मोक्षवादियों का ग्रहण किया है। किन्तु प्रकरण के अनुसार इस वाक्य का संबंध शाक्य दर्शन से ही होना चाहिए। १. चूणि, पृष्ठ २६ : तथा स्कन्धमातृका हेतुमात्रमात्मानमिच्छन्ति बोजाकुरवत् । अहेतुकं शून्यवादिका हेतु - प्रत्यय - सामग्रीपृथग्भावेष्वसम्भवात् । तेन तेनामिलाप्या हि, भावाः सर्वे स्वभावतः॥ २. विसुद्धिमग्ग, भाग ३ पृ ११८५ : पुरिमेन सस्सतादीनमभावो पच्छिमेन च पदेन । उच्छेदादिविधातो द्वयेन परिदीपितो आयो। ३. (क) चूणि, पृष्ठ २६ : अरण्ये वा तापसादयः । (ख) वृत्ति, पत्र २८ : आरण्या वा तापसादयः । ४: वृत्ति, पत्र २८ : प्रवजिताश्च शाक्यादयः । ५. चूणि, पृष्ठ २६ : पव्वगा णाम वचइत्ता (पव्वइत्ता) दगसोअयरियादयो। ६. चूणि, पृष्ठ २६ : एवं दरिसणमिति एवं सक्कदरिसणं वा जाणि य मोक्खवादिदरिसणाणि वुत्ताई ताई। ७. वृत्ति, पत्र २८, २६ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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