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सूपगडो १
प्रध्ययन १ : टिप्पण ५६-६० ५६. सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है (सव्वदुक्खा विमुच्चति)
पंचभूतवादी तथा तज्जीवतच्छरीरवादी मानते हैं कि जो हमारे मत का आश्रय लेते हैं, वे गृहस्थ शिर और मुंह के मुंडन, दंड, चर्म, जटा, काषाय चीवर आदि के धारण करने, के शलोच, नग्नता, तपश्चरण आदि कायक्लेश रूप कष्टों से मुक्त हो जाते हैं। ये उनके लिए आवश्यक नहीं होते, क्योंकि कहा भी है
'तपांसि यातनाश्चित्राः' संयमो भोगवञ्चनम् ।
अग्निहोत्रादिकं कर्म, बालक्रीडेव लक्ष्यते ॥'
तप, विभिन्न प्रकार की यातनाएं, संयम, भोग से वंचित रहना तथा अग्निहोत्र आदि सारे अनुष्ठान बालक्रीडा की भांति तुच्छ हैं।
सांख्य आदि मोक्षदर्शनवादी कहते हैं कि जो हमारे दर्शन को स्वीकार कर प्रवृजित होते हैं वे जन्म, मरण, बुढापा, गर्भपरंपरा तथा अनेक प्रकार के तीव्रतम शारीरिक और मानसिक दुःखों से मुक्त हो जाते हैं । वे समस्त द्वन्द्वों से मुक्त हो मोक्ष पा लेते
चूर्णिकार ने इसका विवरण इस प्रकार दिया है -बौद्ध उपासक भी सिद्ध हो जाते हैं तथा आरोप्य देव भी देवयोनि से मुक्त हो जाते हैं । सांख्य मतानुयायी गृहस्थ भी अपवर्ग को प्राप्त कर लेते हैं।
इस श्लोक की व्याख्या बौद्ध दर्शन से संबंधित है इसलिए 'इमं दरिसणं' का अर्थ बौद्ध दर्शन ही होना चाहिए । ५७. तेषाविम
चूर्णिकार ने 'तेण' शब्द उपासकों की संज्ञा है-ऐसा सूचित किया है। किन्तु बौद्ध साहित्य में इसकी कोई जानकारी नहीं मिलती। हमने इसका संस्कृत रूप-'तेनापीद' किया है । यहां 'तेन' शब्द पूर्व श्लोक में आए हुए गृहस्थ, आरण्यक और प्रव्रजित का सर्वनाम है। ५८. त्रिपिटक आदि ग्रन्थों को जान लेने से (तिण च्चा)
चूर्णिकार ने त्रि शब्द को त्रिपिटक का सूचक बतलाया है। वृत्ति में 'तेणाविमं तिणच्चाणं' पाठ के स्थान पर 'तेणावि संधि णच्चाणं' पाठ मिलता है। उसमें त्रिपिटक का उल्लेख नहीं है।' ५६. दुःख के प्रवाह का पार नहीं पा सकते (ओहंतराहिया)
यहां दो पदों में संधि है-ओहंतरा+आहिया। 'ओहंतरा' का अर्थ है-कर्म के प्रवाह को तैरने वाला । ओघ दो प्रकार का होता है-द्रव्य और भाव । द्रव्योष अर्थात् समुद्र और भावौध अर्थात् आठ प्रकार के कर्म, संसार ।'
श्लोक २८ ६०. श्लोक २८
प्रस्तुत श्लोक में आए हुए अनेक शब्दों से पूर्वोक्त कुछ दर्शनों का निरसन होता है। यह वृत्तिकार का अभिमत है।
उववण्णा-इसका अर्थ है कि जीव युक्तियों से सिद्ध है। इस पद के द्वारा पंचभूतवादी तथा तज्जीवतच्छरीरवादी मतों का अपाकरण किया है। १. वृत्ति, पत्र २८, २९ । २. चूणि, पृष्ठ २६ : तच्चणियाणं उबासगा वि सिझति, आरोप्पगा वि अणागमणधम्मिणो य देवा ततो चेव णिव्वंति । साङ्खयाना
मपि गृहस्थाः अपवर्गमाप्नुवन्ति । ३. चूणि, पृष्ठ ३०: तेण त्ति उपासकानामाख्या। ४. वही, पृ० ३०: त्रिपिटकज्ञानेन । ५. वृत्ति, पत्र २६ । ६. चूणि, पृ० ३० : ओहो द्रव्ये भावे च, द्रव्योधः समुद्रः, भावौघस्तु अष्टप्रकार कर्म यतः संसारो भवति ।
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