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सूयगडो १
२८. निर्मल (अकोदियं )
२७. स्थानी ( उच्च स्थान प्राप्त ) ( ठाणी)
चूर्णिकार ने 'स्थानी' का अर्थ देवलोक में होने वाले इन्द्र, सामानिक तथा त्रास्त्रिश आदि देव किया है। जिन्हें उच्चस्थान प्राप्त होता है, वे 'स्थानी' होते हैं। मनुष्यों में चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, मांडलिक और महामांडलिक आदि स्थानी होते हैं । तियों में भी विशिष्ट तियंच-हाथी, घोड़े आदि स्थानी होते हैं।'
पांतंजल योगदर्शन में उच्चस्थान प्राप्त देवों के लिए 'स्थानी' शब्द का प्रयोग मिलता है ।'
श्लोक १३ :
३७३
श्लोक १२:
२६. अपनी मति से (सहसंमइए)
अध्ययन : टिप्पण २७-३०
कोपित का अर्थ है दूषित, खोटे सिक्के जैसा दोषपूर्ण । अकोपित अर्थात् अदूषित, निर्मल ।
वृत्तिकार ने भी यही अर्थ किया है। उन्होंने विकल्प में 'अगोवियं' पाठ मानकर उसका अर्थ 'प्रकट किया है। "
ठाणं ९ १३ में 'इंदित्यविकोवणयाए' पाठ है । इन्द्रिय के विषय का विकोपन अर्थात् दूषण । इसका अर्थ है - कामविकार ।" श्लोक १४ :
इसके तीन रूप हैं - सहसन्मति, स्वसम्मति, स्वस्मृति ।
कुछ व्यक्ति सहमति या सहज स्मृति के द्वारा संबुद्ध होकर धर्म की आराधना में संलग्न हो जाते हैं । ऐसे पुरुष प्रत्येकबुद्ध कहलाते हैं । नैसर्गिक सम्यग्दर्शन में भी विशिष्ट प्रकार की मति और श्रुत होता है। यह धर्म-प्राप्ति का पहला उपाय है । इसका दूसरा उपाय है— धर्मसार या श्रवण ।
३०. (समुट्टिए अणगारे
मनुष्य अपनी बुद्धि से या तीर्थंकर, गणधर या आचार्य आदि से धर्म के सार को सुनकर प्रव्रज्या ग्रहण करता है। वह फिर उत्तरगुणों में पराक्रम करता है और पंडितवीर्य से पूर्वकृत कर्मों के क्षय के लिए प्रवृत्त होता है। वह क्रमशः गुणों का अर्जन करता हुआ आगे बढ़ता है। उसका परिणाम प्रवर्धमान रहता है। सभी पाप प्रवृत्तियों का प्रत्याख्यान कर वह अपने लक्ष्य को पा लेता है । "
१. (क) चूर्ण, पृ० १६८ : स्थानान्येषां सन्तीति स्थानिनः । देवलोके तावदिन्द्र सामानिक त्रास्त्रशाद्याः । मनुष्येष्वपि चक्रवति-बलदेववासुदेव-मण्डल महामण्डलिकादितिर्ययपि वानीष्टानि ।
(ख) वृति पत्र १०१ स्थानिनः, तद्यथा देवलोके [इन्द्रस्तत्सामानिकायस्त्रिसत्पाद्यादीनि मनुष्येष्वपि चक्रवर्तीदेवासुदेवमहामण्डलिकादीनि तिर्यस्यणि यानि कानिचिदिष्टानि भोगम्याय स्थानानि
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२. पातंजल योग दर्शन ३।५१ स्थान्युपनिमन्त्रणे संग
भाष्य-तत्र मधुमतीं भूमि साक्षात् कुर्वतो ब्राह्मणस्य स्थानिनो देवाः सस्वशुद्धिमनुपश्यन्तः
३. चूर्णि, पृ० १६४ : कोवितो णाम दूषितः, कूतकार्षापणवत् । अकोपिता नामा ण केहि वि कोविज्जति ।
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४. पित्र १७१ अकोपितो अधिनः स्वमविषयितुमशक्यत्वात् प्रतिष्ठां गतः (सं), यदि वा सर्वस्वभावमुष्ठानरूपरगोपितं कुत्सितकर्तव्याभावात् प्रदमित्यर्थः ।
५. ठाणं, पृ० ८७५ ।
६. चूर्णि, पृ० १६९ : शोभना मतिः सन्मतिः, सहजाऽऽत्ममतिः सहसम्मतिः, स्वा वा मतिः सम्मतिः, सह सम्मतीए सहसम्मतिगं प्रत्येकबुद्धानाम् निसर्वसम्यग्दर्शने वा पित्तम्बरोपशमनदृष्टान्तसाम आभिणियोधयति । ७. वृत्ति, पत्र १७१, १७२
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