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सूयगडो १
अध्ययन १० : टिप्पण ३२-३७ होता जाता है। ३२. (इस्थीसु सत्तो ..... .... पकुव्वमाणो)
___ इन दोनों चरणों का प्रतिपाद्य है कि मनुष्य में पहले काम की प्रवृत्ति होती है और वह काम की वृत्ति ही परिग्रह के संचय की प्रेरक बनती है । पहले काम और काम के लिए परिग्रह-यह सिद्धान्त फलित होता है।
प्रस्तुत सूत्र के प्रथम अध्ययन के २, ३ श्लोक से यह सिद्धान्त फलित होता है कि पहले परिग्रह और परिग्रह के लिए हिंसा । पूरा क्रम इस प्रकार बनता है पहले काम, काम के लिए परिग्रह और परिग्रह के लिए हिंसा ।
श्लोक : ३३. जन्मान्तरानुयायो वैर में गृद्ध हो (वेराणुगिद्धे)
जिन-जिन प्रवृत्तियों से मनुष्य दूसरों को परिताप देता है, वह उनके साथ वैर का अनुबंध करता है । वह वैर सैकड़ों जन्मों तक उसका पीछा नहीं छोड़ता । व्यक्ति इस प्रकार के वैर में गृद्ध हो जाता है, उसका अनुबंध करता ही रहता है।' ३४. संचय (णिचयं)
इसका अर्थ है-पाप-कर्म का संचय ।'
चूर्णिकार ने 'आरंभसत्ता णिचयं करेंति'—यह पद मान कर "णिचय' का अर्थ-हिरण्य, सुवर्ण आदि द्रव्यों का संचय-किया है । इस द्रव्य संचय से वह व्यक्ति आठ प्रकार के कर्मों का संचय करता है।' ३५. विषम और दुःखप्रद स्थान को (दुहमट्ठदुग्गं)
___ इसमें तीन शब्द हैं-दुःख, अर्थ और दुर्ग । इस पद का संयुक्त अर्थ है-ऐसे दुःखप्रद स्थान जो यथार्थरूप में विषम हों, दुरुत्तर हों। ३६. मेधावी मुनि (मेघावि)
__ चूर्णिकार ने इसका अर्थ संपूर्ण समाधि के गुणों को जानने वाला किया है।' वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ और किए हैंविवेकी, मर्यादावान् ।
श्लोक १०: ३७. सोचकर बोलने वाला (णिसम्ममासी)
इसका अर्थ है-आगे-पीछे की समीक्षा कर बोलने वाला, सोचकर बोलने वाला। १. (क) चूणि, पृ० १८७, १८८ : पासत्योसण-कुसीलाणं विसण्णाणं संयमोद्योगे मार्ग गवेषति विषीदति वा, येन संसारे विसण्णो
भवत्यसंयम इति तमेषतीति विषण्णेषी, तधा तधा दीणभावं गच्छति शुक्लपटपरिभोगवत्, परिभुज्ज
माणशुक्लपटवद् मलिनीभवत्यसो । (ख) वृत्ति, पत्र १९२ : पार्श्वस्थावसन्नकुशीलानां संयमोद्योगे विषण्णानां विषण्णभावमेषते, सदनुष्ठानविषण्णतया संसारपङ्कावसन्नो
भवतीति यावत् । २ वृत्ति, पत्र १९२ : येन केन कर्मणा-परोपतापरूपेण वैरमनुबध्यते जन्मान्तरशतानुयायि भवति तत्र गद्धो वैरानुगद्धः । ३. वृत्ति, पत्र १९२ : निचयं-द्रव्योपचयं तन्निमित्तापावितकर्मनिचयं वा । ४. चूणि, पृ० १८८ : णिचयं करेंति, हिरण्ण-सुवण्णादीदव्वणिचयं । दव्वणिचयदोसेणं अट्ठविधकम्मणिचयं । ५. वृत्ति, पत्र १९२ : दुःखयतीति दुःख-नरकादियातनास्थानमर्थतः परमार्थतो 'दुर्ग' विषमं दुरुत्तरम् । ६. चूणि पृ० १८८ :सम्पूर्ण समाधिगुणं जानानः । ७. वृत्ति, पत्र १९२ : मेधावी ---विवेकी मर्यादावान् वा सम्पूर्णसमाधिगुणं जानानः । ८ (क) चूणि, पृ० १८८ : णिसम्मभासी णाम पूर्वापरसमीक्ष्यमाषी।
(ख) वृत्ति, पत्र १९२ : 'निशम्य'-अवगम्य पूर्वोत्तरेण पर्यालोच्य भाषको भवेत् ।
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