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सूयगडो १
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वृत्तिकार के अनुसार जो परीबहों और उपसर्गों के आने पर शिथिल हो जाता है वह दीन है ।"
२६. विषण्ण (विसणे)
इसका तात्पर्य है कि कोई मुनि कष्टों से घबरा कर विषय भोगों की अभिलाषा करता हुआ पुनः गृहस्थ बन जाता है अथवा पार्श्वस्थ हो जाता है, चर्या में शिथिल हो जाता है ।"
२७. श्लाघा की कामना करने लग जाता है (सिलोयकामी)
श्लोक का अर्थ है -प्रशंसा, यश । वह शिथिल मुनि यश का अभिलाषी होकर व्याकरण, गणित, ज्योतिष, निमित्तशास्त्र आदि का अध्ययन करता है ।"
२८. आधाकर्म (आहाकडं )
श्लोक :
अध्ययन १० टिप्पण २६-३१
मुनि के निमित्त बने आहार, उपकरण आदि को आधाकर्म कहा जाता हैं ।
चूर्णिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ किया है कि मुनि के लिए कोई वस्तु खरीदी जाती है वह क्रीतकृत तथा अन्य उद्गम दोष
"
भी आधाकर्म हैं । किन्तु यह अर्थ चिन्तनीय है ।
आधाकर्म अविशुद्धिकोटि का दोष है और कृत विशुद्धिकोटि का दोष है इसलिए दोनों एक कोटि के नहीं हो सकते।
२६. कामना करता है (णिकाममीणे)
इसका संस्कृत रूप है - 'निकामयमानः' । इसका अर्थ है - अत्यधिक कामना करना प्रार्थना करना । "
पूर्णिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ निमंत्रण-पिंड को स्वीकार करने वाला किया है।"
३०. उसकी गवेषणा करता है (णिकामसारी )
जो आधाकर्म आदि की या उसके निमित्तभूत निमंत्रण आदि की गवेषणा करता है वह निकामसारी कहलाता है ।"
३१. असंयम की एषणा करता है (विसण्णमेसी)
जो पार्श्वस्थ, अवसन्न और कुशील व्यक्ति संयम की चर्या में शिथिल हो गए हैं, उनके मार्ग की गवेषणा करने वाला विषण्णैषी होता है । यहां विषण्ण का अर्थ है-असंयम । जो असंयम की गवेषणा करता है वह सफेद कपड़े को पहनने वाले की तरह दीन होता जाता है, क्योंकि हव सफेद कपड़ा प्रतिदिन मलिन होता जाता है। असंयम की एषणा करने वाला भी प्रतिदिन मलिन १. वृति पत्र ११ परीसहोपसर्गेस्ततो दीनमावमुपगम्य ।
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२. चूर्णि पृ० १८७ : दिसणे ति गित्यीभूतो दासत्यीभूतो वा अयं तु पार्श्वेधिकृतः, पूया - सत्काराभिलाषी वस्त्र पात्रादिभिः पूजनं च इच्छति ।
३. वृत्ति पत्र १९१ : श्लाघाभिलाषी च व्याकरणगणितज्योतिषनिमित्तशास्त्राण्यधीते कश्चिदिति ।
४. णि, पृ० १८७
५. (क) चूर्णि पृ० १८७ : अधिकं कामयते निकामयते, प्रार्थयतीत्यर्थः
(ख) वृति पत्र १२१ विकाम अत्ययः प्रार्थयते स निकाममीत्युच्यते ।
आधाय कई अधाकडं, आधा कर्मेत्यर्थः । अथवा अन्यान्यपि जाणि साधुमाधाय कोतकडादीणि क्रियन्ते तानि अधाकडाणि भवंति ।
६. चूर्ण, पृ० १८७ : अथवा नियायणा णिमंतणा जो तं णिमंतणं गेहति सो 'णियायमीणे' ।
७. (क) वृणि, पृ० १८७ : जो पुण आधाकम्मादीणि णिकामाई सरति सुमरइ त्ति निगच्छति गवेषतीत्यर्थः ।
(ख) वृत्ति, पत्र १९१ : निकामम् — अत्यर्थ आधाकर्मावोनि तन्निमित्तं निमन्त्रणादीनि वा सरति चरति तच्छीलश्च ।
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