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________________ सूयगडी १ ४४१ अध्ययन १० : टिप्पण ३८-४० ३८. हिंसायुक्त कया न करे (हिंसण्णितं वा ण कहं करेज्जा) मुनि हिंसायुक्त कथा न करे अर्थात् ऐसा वाद न करे जो अपने लिए या दूसरे के लिए या दोनों के लिए बाधक हो। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने हिंसान्वित वचन के रूप में कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए हैं खाओ, पीओ, मोज करो, मारो, पीटो, छेदो, प्रहार करो, पकाओ आदि ।' वास्तव में 'कथा' का अर्थ वचन या भाषण न होकर यहां उसका अर्थ 'वाद' होना चाहिए । स्थानांग सूत्र में कथा के चार प्रकार बतलाए हैं-आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी, निर्वेदनी।' इनमें 'विक्षेपणी कथा' खंडन-मंडन से सम्बन्धित है। उसके चार प्रकार हैं १. स्वमत का प्रतिपादन कर परमत का प्रतिपादन करना । २. परमत का , स्वमत का , , । ३. सम्यक्वाद का , , मिथ्यावाद का , , । ४. मिथ्यावाद का , , सम्यक्वाद का , , । खंडन-मंडन रूप चर्चा के लिए कथा और वाद शब्द प्रचलित रहे हैं। न्याय परंपरा में कथा के तीन भेद किए हैं-वाद, जल्प और वितंडा । जैन परंपरा भी 'वाद' के अर्थ में कथा का प्रयोग स्वीकार करती है। प्रस्तुत श्लोक में 'कथा' शब्द वाद के अर्थ में प्रयुक्त है । मुनि ऐसा 'वाद' न करे जिसमें हिंसा की संभावना हो। श्लोक ११: ३६. आधाकर्म की (आहाकडं) आठवें श्लोक में भी 'आधाकर्म' आहार का निषेध किया गया है। उसका पुनः निषेध पुनरुक्त जैसा लगता है, किंतु प्रस्तुत श्लोक में इसका पुनः उल्लेख विशेष प्रयोजन से किया गया है। ___ मुनि घर-घर आहार के लिए घूमता है । निर्दोष आहार की प्राप्ति सुलभ नहीं होती। कुछ उपासक दया के वशीभूत होकर मुनि के लिए आहार बना देते हैं। किन्तु निर्दोष आहार की एषणा करने वाला मुनि आहार न मिलने पर भी अपने लिए बनाए आहार की कामना नहीं करता। यह भी एक तपस्या है। वह भूखा रहकर उपवास कर लेता है, पर सदोष आहार ग्रहण नहीं करता। शरीर को धुनने का यह एक उपाय है । इसी प्रसंग में इसका पुनः उल्लेख हुआ है। ४०. प्रशंसा और समर्थन न करे (संथवेज्जा ) चूर्णिकार का कथन है कि जो मुनि आधाकर्म की कामना करते हैं, उनके साथ आना-जाना, उनके इस कार्य की प्रशंसा करना या उनके साथ परिचय करना- मुनि यह न करे ।' वृत्तिकार के अनुसार जो मुनि आधाकर्म की कामना करते हैं उनके साथ संपर्क करना, उनको दान देना, उनके साथ रहना, उनसे बातचीत करना-इन सारी प्रवृत्तियों से उनका समर्थन न करे, उनकी प्रशंसा न करे । इसका सारांश है कि उन १. (क) · चूणि, पृ० १८८ : हिंसया अन्विता (हिंसान्विता) । कथ्यत इति कथा। कथं हिंसान्विता ? तस्माद् अश्नीत पिबत खादत मोदत हनत निहनत छिन्दत प्रहरत पचतेति । (ख) वृत्ति, पन १९२। २. ठाणं ४।२४६ : चउब्विहा कहा पण्णत्ता, तं जहा -अक्खेवणी, विक्खेवणी, संवेयणी, णिव्वेदणी। ३. ठाणं ४।२४८ : विक्खेवणी कहा चउम्विहा पणता, तं जहा-ससमयं कहेइ, ससमयं कहित्ता परसमयं कहेड, परसमयं कहेत्ता ससमयं ठावइता भवति, सम्मावायं कहेछ, सम्मावार्ग कहेता मिच्छावागं कहेइ, मिच्छावागं कहेत्ता सम्मावा ठावइता भवति । ४. चूणि, पृ० १८८ : ये चैनं (औद्देशिकम्) कामयन्ति न तैः पावस्थाविमिरागमणगमादि तत्प्रशंसादि संस्तवं च कुर्यात् । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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