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________________ सूयगडो। ४४२ अध्ययन १० : टिप्पण ४१-४४ मुनियों के साथ परिचय न करे ।' संस्तव के मुख्य रूप से दो अर्थ होते हैं --स्तुति और परिचय । संस्तव दो प्रकार का होता है-संवास संस्तव शौर वचन संस्तव अथवा पूर्व संस्तव और पश्चात् संस्तव । विशेष विवरण के लिए देखें-उत्तराध्ययन १५३१ का टिप्पण । ४१. स्थूल शरीर की (उरालं) चूर्णिकार ने इसका अर्थ औदारिक शरीर किया है। वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं१. औदारिक शरीर। २. अनेक भवों में संचित-कर्म । ४२. अपेक्षा न रखता हुआ (अणवेक्खमाणे) ___ मुनि यह न सोचे कि तपस्या के द्वारा मैं दुर्बल हो जाऊंगा, मेरा शरीर कृश हो जाएगा, इसलिए मुझे तपस्या नहीं करनी चाहिए । मैं दुर्बल हूं, मैं तपस्या कैसे कर सकता हूं ? मुनि इस प्रकार न सोचे। वह शरीर को याचित उपकरण की भांति मानकर उसके साथ वैसा ही व्यवहार करे। उसे तपस्या के द्वारा धन डाले ।' जैन आगमों में शरीर को धुनने की बात बहुत बार कही गई है। इसका प्रयोजन यह है कि शरीर को धुनने की प्रवृत्ति से कर्म भी धुने जाते हैं, उनका भी अपनयन होता है । कर्मों का अपनयन ऊर्ध्वारोहण का उपक्रम है। ४३. स्रोत को (सोयं) इसका अर्थ है-स्रोत । गृह, कलत्र, धन तथा प्राणातिपात आदि आत्रव-ये सारे असमाधि के स्रोत हैं।' श्लोक १२: ४४. एकत्व (अकेलेपन) की (एगत्तं) एकत्व का अर्थ है-अकेलापन । साधक यह साचे कि न मैं किसी का हूं और न मेरा कोई है ।' एक्को मे सासओ अप्पा णाण-दंसणसंजुतो। सेसा मे बाहिरा मावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥' -ज्ञान और दर्शन से संयुक्त शाश्वत आत्मा ही मेरा अपना है, शेष संयोग (वियोग) लक्षण वाले सारे पदार्थ पराए हैं, बाह्यभाव हैं। वृत्तिकार ने एकत्व का अर्थ --असहायत्व किया है। मुनि यह सोचे कि यह संसार जन्म, मरण, जरा, रोग और शोक से १. वृत्ति, पत्र १९३ : तयाविधाहारादिकं च 'निकामयत:'--निश्चयेनामिलषत: पावस्थादींस्तत्सम्पकंदानप्रतिग्रहसंवाससम्भाषणादिभिः न संस्थापयेत्-नोपबृहयेत् तैर्वा साधु संस्तवं न कुर्याविति । २. चूणि, पृ० १८८ : उरालं णाम औदारिकशरीरं। ३. वृत्ति, पत्र १९३ : 'उरालं ति औदारिकं शरीरं .......... "यदि वा 'उरालं' ति बहुजन्मान्तरसञ्चितं कर्म । ४. (क) चूणि, पृ० १८८ : अनपेक्षमाण इति नाहं दुर्बल इति कृत्वा तपो न कर्त्तव्यम्, दुर्बलो वा भविष्यामीति, याचितोपस्करमिव व्यापारोदिति, तन्निविशेषां अनपेक्षमाणः । (ख) वृत्ति, पत्र १९३ : तस्मिश्च तपसा धूयमाने कृशीभवति शरीरके कदाचित् शोकः स्यात् तं त्यक्त्वा याचितोपकरणववनप्रेक्ष माणः शरीरकं धुनीयादिति सम्बन्धः । ५. चूणि, पृ० १८८ : असमाधि श्रवतीति श्रोतः, तद्धि गह-कलन-धनादि, प्राणातिपातादीनि वा श्रोतांसि । ६. चूणि, पृ० १८८: एकभाव एकत्वम्, नाहं कस्यचिद् ममापि न कश्चि विति । ७. संस्तारक पौरुषी, गाथा ११ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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