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________________ सूयगडो १ WE अध्ययन १० टिप्पण ४५-४८ आकुल व्याकुल है । अपने कर्मों का फल भोगने वाले प्राणियों को यहां कोई भी त्राण नहीं दे सकता, उनकी सहायता नहीं कर सकता । इस संसार में सब असहाय हैं ।" ४५. एकत्व मोक्ष है ( एतं पमोक्खे) एकत्व की साधना से मोक्ष से प्राप्ति होती है। यहां कारण में कार्योपचार कर एकत्व को ही मोक्ष कह दिया गया है । चूषिकार ने विकल्प में 'एतं' से ज्ञान आदि समाधि को ग्रहण किया है।" ४६. सत्यरत ( सच्चरए) चूर्णिकार के अनुसार इसके दो अर्थ है'-- १. सत्य में रत । २. संयम में रत । प्रस्तुत श्लोक के तीसरे चौथे चरण की व्याख्या में वृत्तिकार ने दो विकल्प प्रस्तुत किए हैं। १. एकत्व भावना का अभिप्राय ही प्रमोक्ष है, सत्य है, प्रधान है, अक्रोधन है, सत्यरत है और तपस्यायुक्त है । २. जो व्यक्ति तपस्वी है, अक्रोधन है, सत्यरत है, वही प्रमोक्ष है, सत्य है और प्रधान है। श्लोक १३ : ४७. नाना (उच्चावएसु ) इसमें दो शब्द हैं— उच्च और अवच । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसका संयुक्त अर्थ अनेक प्रकार का — किया है। वैकल्पिक रूप में उच्च का अर्थ है-उत्कृष्ट और अवच का अर्थ है - जघन्य ४८. मध्यस्थ (ताई) हमने इसका संस्कृत रूप ‘तादृग्' किया है। वृत्तिकार ने इसका रूप 'त्रायी' देकर इसका अर्थ वाणभूत किया है। चूर्णिकार ने इसके स्थान पर 'ताया' शब्द मानकर त्राता अर्थ किया है । " तादृग् का अर्थ है – वैसा, ऐसा व्यक्ति जो विशेष प्रकार का आचरण करता है। इसी आधार पर हमने इसका अर्थ-समान रूप से बरतने वाला, मध्यस्थ रहने वाला किया है। इसका संस्कृत रूप 'तायी' भी किया जाता है। विशेष विवरण के लिए देखें - दसवेआलियं ३ | १ का टिप्पण । १ वृत्ति, पत्र १९३ : एकत्वम् – असहायत्वमभिप्रार्थयेद् - एकत्वाध्यवसायी स्यात् तथाहि - जन्मजरामरणरोगशोकाकुले संसारे स्वकृतकर्मणा विलुप्यमानानामशुमतां न कश्चित्त्राणसमर्थः - सहाय: स्यात् । २. चूर्ण, पृ० १८९ : जं चैव एतं एकत्वं एस चैव पमोक्लो, कारणे कार्योपचारादेष एव मोक्षः, भृशं मोक्षो पमोक्लो, सत्यश्चायम् । अथवा ज्ञानादिसमाधिप्रमोक्षम् । Jain Education International ३ णि, पृ० १८६ : सत्यो णाम संयमो अननृतं वा, सत्ये रतः सत्यरतः ॥ ४. वृत्ति, पत्र १९३ । ५. (क) चूर्ण, पृ० १८६ उच्चावएहि उच्चावया हि अनेकप्रकाराः शब्दादयः, अथवा उच्चा इति उत्कृष्टा, अवचा जधन्याः, शेषा मध्यमाः । (ख) वृत्ति, पत्र १९३ : उच्चावचेषु नानारूपेषु विषयेषु यदि बोच्चा- उत्कृष्टा अवचा - जघन्याः । ६. वृत्ति, पत्र १९३ : 'त्रायो' अपरेषां च त्राणभूतः । ७. वृणि, पृ० १८६ : त्रायत इति त्राता । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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