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________________ सूयगडो १ ४९. सेवन ५०. (ण संसयं भिक्खू समाहिपत्ते ) " करने वाला (संसयं) इसका संस्कृतरूप है-संश्रयन् । इसका अर्थ है - सेवन करता हुआ ४४४ इस पद का अर्थ दो प्रकार से किया जा सकता है १. विषयों का सेवन न करने वाला भिक्षु समाधि को प्राप्त होता है । २. समाधि प्राप्त भिक्षु नानारूप विषयों का सेवन नहीं करता । " श्लोक १४: ५१. अरति और रति को (अरति ति) अरति और रति सापेक्ष शब्द हैं । संयम में रमण न करना अरति और असंयम में रमण करना रति है । अठारह पापों में यह एक पाप है, इसलिए इस पर विजय पाना मुनि के लिए अपेक्षित है । ५२. तृण आदि के स्पर्श ( तणादिफार्स) चूर्णिकार ने तृणस्पर्श से काष्ठ-संस्तारक, इक्कड नामक घास तथा समाधिमरण में प्रयुक्त की जाने वाली सामग्री का ग्रहण किया है ।" वृत्तिकार ने आदि शब्द से ऊंची-नीची भूमि का ग्रहण किया है । * ५४. वाणी से संयत (गुत्ते वइए) ין ५३. सुगन्ध और दुर्गन्ध में (सुमि च दुभि च ) सुरभि का अर्थ है-सुगंध और दुमि का अर्थ है सुरभि से इष्ट-विषयों का और न से अनिष्ट विषयों का ग्रहण किया गया है।' Jain Education International श्लोक १५: पुर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं- (१) मौनी (२) आवश्यकतावश संयत वाणी का प्रयोग करता है वह समाधि को प्राप्त होता है ।" किन्तु इसका मूल अर्थ ही मौन ही होना चाहिए। १. ( क ) चूणि, पृ० १५६ : 'श्रि सेवायाम्' न संश्रयमानः असंश्रयमान । (ख) वृत्ति, पत्र १९४ : संश्रयतीत्यर्थः । २. वृत्ति, पत्र १९३, १६४ । २. पूर्ण पृ० १० तावात अध्ययन १० टिप्पण ४१-५४ इस पद का तात्पर्य यह है कि जो मुनि मौन व्रती है पा वृत्तिकार ने भी इसके दो अर्थ किए हैं -- ( १ ) जो वाणी में या वाणी से संयत है अर्थात् मौनव्रती है (२) जो विचारपूर्वक केवल धर्म संबंधी बात करता है । " ४. वृत्ति, पत्र १९४ : तृणादिकान स्पर्शनादिग्रहणान्निम्नोन्नतभूप्रदेशस्पर्शांश्च । ५. चूणि, पृ० १८६ : सुबिभ-दुब्धिगहणेण इट्ठाऽणिट्ठविसया गंहिता । ६. चूर्णि, पृ० १८६ : मौनो वा समिते वा भाषते, भावसमाधिपत्ते भवति ! ७. वृत्ति, पत्र १९४ : वाचि वाचा वा वाग्गुप्तो -पौत्रवती सुपर्यालोचितधर्मसम्बन्धभाषी वा सहभागकडा व समाधिसमाओ गहियाओ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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