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________________ सूयगडो. ४४५ प्रध्ययन १०: टिप्पण ५५-५८ ५५. विशुद्ध लेश्या के साथ (लेसं समाहर्ट्स) जन परंपरा में छह लेश्याएं मान्य हैं- कृष्ण, नील, कापोत, तेजस्, पद्म और शुक्ल। इनमें प्रथम तीन अशुभ हैं और शेष तीन शुभ । मुनि अशुभ लेश्याओं का परिहार कर शुभ लेश्याओं को स्वीकार करे । समाहृत्य का अर्थ है-स्वीकार करके ।' ५६. गृहस्थों के साथ एक स्थान में न रहे (सम्मिस्सिभावं पजहे पजासु) चूर्णिकार ने सम्मिश्रीभाव के तीन अर्थ किए हैं(१) (स्त्रियों या गृहस्थों के साथ) एक स्थान में रहना । (२) उनके साथ जाने आने रूप परिचय करना । (३) उनके साथ स्नेह करना। वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-- (१) पचन-पाचन आदि गृहस्थोचित प्रवृत्ति करना । (२) स्त्रियों के साथ मेल-मिलाप करना। प्रजा शब्द के दो अर्थ हैं-स्त्री अथवा गृहस्थ ।' श्लोक १६: ५७. अक्रियात्मवादी (अकिरियाता) चूणिकार इस प्रसंग में किसी दर्शन-विशेष का उल्लेख नहीं करते । वे केवल इतना ही उल्लेख करते हैं कि जो अशोभन क्रियावादी है या जिनके दर्शन में आत्मा को अक्रिय माना है, वे निश्चित ही अक्रियात्मवादी हैं। जो दर्शन आत्मा को अक्रिय मानता है वह अक्रियात्मवादी है। वृत्तिकार ने सांख्य दर्शन को अक्रियात्मवादी माना है। सांख्य आत्मा को सर्वव्यापी और निष्क्रिय मानते हैं । 'अकर्ता निर्गुणो भोक्ता, आत्मा कपिलदर्शने'--कपिल (सांख्य के पुरस्कर्ता) के दर्शन में आत्मा अकर्ता, निर्गुण और भोक्ता है । वे मानते हैं कि आत्मा अमूर्त है, सर्वव्यापी है, इसीलिए वह अकर्ता है।' ५८. धुत (धुतं) चूर्णिकार ने 'धुत' का अर्थ वैराग्य और वृत्तिकार ने मोक्ष किया है । 'धत समाधि की साधना पद्धति है। बौद्धों में तेरह धुत प्रतिपादित हैं--पांशुकूलिकांग, वैचीवरिकांग आदि आदि। ये सारे धुतांग क्लेशों को क्षीण करने में सहायक होते हैं । 'धुत' का शाब्दिक अर्थ है- धुन डालना । इसका पारिभाषिक अर्थ है-क्लेशों को धुन डालने की पद्धति । बौद्ध साधना पद्धति में इन धुतों का १. (क) चूणि, पृ० १८६ : तिण्णि (अपसत्थाओ) लेस्साओ अवहट्ट तिण्णि पसत्थाओ उपह१ ।। (ख) वृत्ति, पत्र १९४ : शुद्धा 'लेश्यां -तेजस्यादिकां समाहृत्य'-उपादाय अशुद्धां च कृष्णादिकामपहृत्य । २. चूणि, पृ० १८६ : प्रजा गृहस्थाः तैः सम्मिश्रीभावं पजहे । सम्मिस्सिभावो णाम एगतो वास: आगमण-गमणाइसंभवो स्नेहो वा। ३. वृत्ति, पत्र १६४ : पचनपाचनादिकां क्रियां कुर्वन् कारयंश्च गृहस्थैः सम्मिश्रभावं भजते, यदि वा.--.प्रजाः स्त्रियस्तासु ताभिर्वा यः सम्मिश्रीभावः। ४. (क) चूणि, पृ० १८६: प्रजायन्तः प्रजाः स्त्रियः अथवा....... " प्रजा गहस्थाः । (ख) वृत्ति, पत्र १९४ । ५ चूणि, पृ० १६० : अशोभनक्रियावादिनः पारतन्त्र्या क्रियावादिनः अक्रियाता. अक्रियो वाऽऽत्मा येषां (ते) निश्चितमेव अक्रियात्मानः । ६ वत्ति, पत्र १९४ : ये केचन अस्मिन लोके अक्रिय आत्मा गेषामभ्युपगमे तेऽक्रियात्मान:-सांडयाः, तेषां हि सर्वव्यापित्वादात्मा निष्क्रिय: पठ्यते ......... ७ चूणि पृ० १६० : धुतं नाम वैराग्यम् । ८. वृत्ति, पत्र १९२ : धूतं मोक्षम् । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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