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________________ सूयगड १ ५४. असंयत प्रवृत्ति को सहारा देना (संपसारी) देखें - २ / ५० का टिप्पण | ५५. आरंभ की प्रशंसा करना ( कयकिरिए) देखें - २ / ५० का टिप्पण । ५६. अंगुष्ठ आदि के द्वारा फल बताना ( परिणायतनानि ) देखें - २ / ५० में 'पासिणए' का टिप्पण । ४०४ श्लोक १६ : ५७. शय्यातर पिंड ( सागारियं पिंडं ) इसका अर्थ है - शय्यातर पिंड । मुनि जिसके मकान में रात्रीवास करता है, वह शय्यातर कहलाता है । उस घर के मालिक का भोजन आदि मुनि के लिए वज्र्ज्य है। वृत्तिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं-' १. शय्यातर का पिंड । २. सूतकगृह का पिंड । ३. जुगुप्सित कुल का पिंड विशेष टिप्पण के लिए देखें- दशवै ० ३ / ५ का टिप्पण | १. वृति पत्र १०१ १८. जुआ (अट्टाप) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-यूतक्रीडा किया है और यह राजपुत्रों में ही होती है ऐसा निर्देश किया है। मुनि अष्टापद का अभ्यास न करे और जो मुनि बनने से पूर्व सीखा हुआ है, उसका प्रयोग न करे । ' वृत्तिकार ने इसका मुख्य अर्थ - चाणक्य आदि का अर्थशास्त्र और गौण अर्थ - द्यूत - क्रीडा विशेष किया है। २. पूर्ण पृ० १० २. वृत्ति पत्र १०१ श्लोक १७ : जैन आगमों में वर्णित बहत्तर कलाओं में द्यूत दसवीं कला है और अष्टापद तेरहवीं कला है। इसके अनुसार 'द्यूत' और 'अष्टापद' एक नहीं है। Jain Education International अध्ययन : टिप्पण ५४-५८ वह आज की भाषा में हम अष्टापद को शतरंज का खेल कह सकते हैं। द्यूत के साथ द्रव्य की हार-जीत का प्रसंग रहता है, अतः निर्ग्रन्थ के लिए संभव नहीं है । शतरंज का खेल प्रधानतया आमोद-प्रमोद के लिए होता है। अतः यह अर्थ प्रसंगोपात्त है । दशवैकालिक सूत्र ( ३ / ४) में भी यह शब्द आया है । उसके व्याख्याकारों ने इसके तीन अर्थ किए हैं १. द्यूत । २. एक प्रकार का द्यूत | ३. अर्थ - पद - अर्थ - नीति | लकगृहपिण्डं जुगुप्सितं 'सागारिक: सध्यातरस्तस्य विन्डम् आहारं यदि वा सागारिकपिण्डमिति वर्णापसदपिण्डं वा । अाप नाम कीडा, न भवत्यराजपुत्राणाम्, समष्टापदं न शिक्षेत पूर्वशिक्षितं वा न कुर्यात् । अट्ठावइत्यादि अत्यधनधान्य हिरण्यादिकः पद्यते गम्यते येनास्तत्पदं शास्त्र अर्थार्थ परमपदं चाणाक्या विकमर्थशास्त्रं यदि वा 'अष्टापदं' - तक्रीडाविशेषः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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