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सूयगडो १
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'प्राचीन भारतीय मनोरंजन' के लेखक मन्मथराय ने भी अष्टपाद को शतरंज या उसका पूर्वज खेल माना है । देखें -- दशवैकालिक ३/४ अट्ठावए का टिप्पण |
५२. वेध (बेध)
चूर्णिकार ने वेध का अर्थ द्यूतविद्या या शरीर का वेधन किया है।
२
वृत्तिकार ने 'वेधाईयं' पाठ के दो अर्थ किए हैं
१. धर्मानुवेध से अतीत अर्थात् अप-प्रधान वचन ।
२. वस्त्र-वेध - एक प्रकार का द्यूत, तद्गत वचन ।
'वेधाईयं' इस पद में दीर्घ ईकार होने के कारण वृत्तिकार ने इसे वेधातीत मान लिया । आगमों में 'आदिक' शब्द के 'आदिय' और 'आदीय' - ये दोनों प्रयोग मिलते हैं । संस्कृत शब्द कोष में वेध का अर्थ है -ग्रह-नक्षत्रों का योग ।' 'वदेत्' क्रिया के संदर्भ में यही अर्थ उपयुक्त प्रतीत होता है ।
६०. हस्तकर्म (हत्यकम्मं )
चूर्ण में इसका अर्थ स्पष्ट नहीं है । वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं*
१. हस्तकर्म - अप्राकृतिक मैथुन ।
२. हाथापाई
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भगवती आराधना में इसका अर्थ है-छेदन, भेदन, रंगना, चित्र बनाना, गूंथना आदि हस्त कौशल ।" संस्कृत शब्द कोष में 'हस्तक्रिया' का अर्थ हस्तकौशल मिलता है। यहां यही अर्थ विवक्षित है ।
६१. विवाद ( विवाय )
पूर्णिकार ने विवाद, विष और इनको एकार्थक माना है। कृतिकार ने शुष्कवाद को विवाद माना है।"
श्लोक १८ :
६२. जूता (उवाहणालो)
यहां 'उवाहणा' शब्द का प्रयोग हुआ है । दशवेकालिक में 'पाणहा' और पाठान्तर के रूप में 'पाहणा' शब्द प्राप्त हैं । 'पाणहा' और 'पाहणा' में 'ण' और 'ह' का व्यत्यय है । उवाणा का संक्षिप्त रूप 'पाहणा' है । इसका अर्थ है - पादुका, पादरक्षिका, "
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१. चूर्ण, पृ० १७८: वेधा नाम द्यूतविच्च ( ज्जा) समूसितंगे ( ? ) रुधिरं जंत छिज्जंताणं ।
२. वृत्ति, पत्र १८८ : वेधो धर्मानुवेधस्तस्मावतीतं सद्धर्मानुवेधातीतम् - अधर्मप्रधानं वचो नो वदेत् यदि वा-वेध इति वस्त्रवेधो द्यूतविशेषस्तद्गतं वचनम् ।
३. आप्टे, संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी पृ० १४६७ :
वेध :- Fixing the position of the sun, planets or the stars.
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४. वृत्ति, पत्र १८१ : हस्तकर्म प्रतीतं, यदि वा हस्तकर्म हस्तक्रिया परस्परं हस्तव्यापारप्रधानः कलहः । ५. भगवती आराधना, गाथा ६१३, विजयोदया टीका ।
६. आप्टे, संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी पृ० १७५३ :
अध्ययन : टिप्पण ५६-६२
हस्तक्रिया - Manual work or performance, handicraft.
७. पूणि, पृ० १७८: विवादो विग्रहः कलह इत्यनर्थान्तरम् । ८. वृत्ति पत्र १८१ : विरुद्धवादं विवादं शुष्कवाद मित्यर्थः । E. (क) चूर्णि, पृ० १७९ : उपानहौ पादुके ।
(ख) वृत्ति, पत्र १८१ : उपानहो— काष्ठपाटुके । १०. भगवती २१ वृति ..... पादरक्षकाम् ।
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