________________
सूयगडो १
४०३
३. जिस व्यायाम, स्नेहपान, रसायन के द्वारा बल की वृद्धि होती है, वह आशूनि कहलाता है । चूर्णिकार ने श्लाघा के अर्थ को मुख्य मान कर शेष दो अर्थों को वैकल्पिक रूप में प्रस्तुत किया है । वृत्तिकार ने श्लाघा के अर्थ को गौण मान कर शेष दो अर्थों को मुख्य माना है ।
५०. आंखों को अजिना (अगं )
आंखों को सौवीरक आदि से आंजना ।
५१. तिरस्कार ( उवधायकम्मगं )
व्यक्ति जाति, कर्म या शील से दूसरों का उपहनन करता है, उनको नीचा दिखाता है, वह उपघातकर्म है । '
५१. हाथ-पैर आदि धोना (उच्छोलणं)
हाथ, पैर, मुंह आदि को धोना उत्क्षालन कहा जाता है।*
वृत्तिकार ने अनापूर्वक सचित जल से हाथ-पैर आदि को धोना 'उरासन' माना है।
दशवेकालिक सूत्र (४ / श्लोक २६ ) में उत्क्षालनप्रधावी - हाथ-पैर आदि को बार-बार धोने वाले के लिए सुगति दुर्लभ हैं। ऐसा कहा गया है। इस सूत्र के पूर्णिकार जिनदास महत्तर का अभिमत है कि जो थोड़े से जल से हाथ, पैर आदि को यतनापूर्वक धोता है वह उत्क्षालनप्रधावी नहीं होता । किन्तु जो प्रभूत जल से बार-बार अयतनापूर्वक हाथ, पैर आदि को धोता है, वह उत्क्षालनप्रधावी होता है उसे सुगति नहीं मिलती।'
५३. उबटन करना (कक्कं )
कल्क का अर्थ है - स्नान-द्रव्य, विलेपन द्रव्य या गंध द्रव्य का आटा । प्राचीन काल में स्नान में सुगंधित द्रव्यों का उपयोग किया जाता था। स्नान से पूर्व सारे शरीर पर तेल-मर्दन किया जाता था। उसकी चिकनाई को मिटाने के लिए पिसी हुई दाल या आंवले का सुगंधित उबटन लगाया जाता था। इसी का नाम 'कल्क' है ।
यह उबटन आटे अथवा लोध आदि द्रव्यों के मिश्रण से भी बनाया जाता था । "
वैद्यक ग्रन्थों में कल्क की परिभाषा यह है
विशेष विवरण के १. (क) भूमि, पृ० १७८
द्रव्यमात्रं शिला पिष्टं शुष्कं जलमिश्रितम् । तदेव सूरिभिः पूर्व फरक इत्यभिधीयते
अध्ययन १ टिप्पण ५०-५३
लिए देखें -- दशवैकालिक ६ / ६२ 'कक्क' और 'लोद्ध' का टिप्पण |
Jain Education International
आधिक नाम राधा येन परे स्तूयमानः सुरजति पावणोति यावद्वानुस्मरति तावत् सुमति मानेनेति आसूनिकम् अथवा वेग आहारेण आहारितेण सुणीहोति बलवस्वं भवति, व्यायाम-स्नेहान रसायनादि
भिर्वा ।
(ख) वृत्ति पत्र १५० आणि इत्यादि येन घृतपानादिना आहारविशेषेण रसायनथिया वा असून सन् आसी भवति - बलवानुपजायते तदाशुनीत्युच्यते, यदि वा आसूणित्ति - श्लाघा यतः श्लाघया क्रियमाणया आसमन्यात लघुप्रकृतिः कश्विदध्यातत्वात् स्तब्धो भवति ।
२. वृत्ति पत्र १८० : अक्ष्णां 'रागो' रञ्जनं सौवीरादिकमञ्जनमितियावत् ।
३. चूर्णि, पृ० १७८ : उपोद्घातकर्म णाम परोपघातः तच्च करोतीत्याह, जातितो कर्मणा सीलेण वा परं उवहणति ।
४. चूर्ण, पृ० १७ : उच्छोलणं च हत्य-पाद-मुखादीनां ।
५ णि, पृ० १८० : उच्छोलनं' ति अयतनया शीतोदकपानादिना हस्तपादादिप्रक्षालनम् ।
६४ / २६ जना पृ० १६४ उच्चपहावी नाम जो पभूओरगेण ह्त्यपावादी अभिस्तर्ण पक्तालय, पोष
७. (क) चूणि, पृ० १७८ कल्केन अट्टगमादिया हत्यन्यादे मुखं गातापि च उचट्टेति । (ख) बत्ति, पत्र १८० : कल्कं लोभादिद्रव्यसमुदायेन ।
८. बंदसिंधु, पृ० २३० ॥
कुयि कृष्यमाणो (ग) उन्दोलणापहोली म
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org