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________________ [२६] प्रतिपादित होता है।" ये परिशिष्ट किसी एक आचार्य के द्वारा लिखित हैं या भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा इसका निर्णय करना सरल नहीं है । आचारांग के साथ जिस प्रकार आचारचूला का सम्बन्ध प्रदर्शित है उसी प्रकार सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के अध्ययनों के साथ द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अध्ययनों का सम्बन्ध प्रदर्शित नहीं है। फिर भी समग्रदृष्टि से प्रदर्शित सम्बन्ध के द्वारा द्वितीय श्रुतस्कन्ध को प्रथम श्रुतस्कन्ध के वार्तिक या परिशिष्ट की कोटि में रखा जा सकता है । द्वितीय श्रुतस्कन्ध के सात अध्ययनों में पांच अध्ययन गद्य में हैं । आदर्शों में उनका आकार बहुत ही संक्षिप्त है । उस संक्षेप के कारण वे बहुत दुर्बोध बन गए । उन्हें पढ़ने पर सहज ही पाठक के मन पर उनके अव्यवस्थित होने का प्रभाव हो सकता है। किन्तु पाठ की पूर्णता करने पर वह प्रभाव नहीं हो सकता है । यदि प्रो० विटरनीत्स के सामने प्रस्तुत पुस्तक का पाठ होता तो सम्भवतः उनकी उक्त धारणा नहीं बन पाती । प्रथम श्रुतस्कन्ध की रचना सुधर्मा स्वामी की है, अतः इसका कालमान ईस्वी पूर्व पांचवीं शताब्दी होना चाहिए। द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रचनाकार के विषय में कोई जानकारी प्राप्त नहीं है । अतः इसका रचनाकाल निश्चित करना भी कठिन है । वह ईस्वी सन् पांच सौ पूर्व की रचना है, यह इस आधार पर कहा जा सकता है कि देवधिगणी के सामने यह प्राप्त था। इसमें मागधी के कुछ विशेष प्रयोग मिलते हैं, जैसे—- अकस्मा, अस्माकं । प्राकृत की दृष्टि से इनके स्थान में 'अकम्हा, अम्हं' का प्रयोग होना चाहिए था । शीलांकसूरी ने इस विषय में लिखा है कि मगध देश में ग्वालों तथा स्त्रियों के द्वारा भी ये शब्द संस्कृत की भांति प्रयुक्त किए जाते हैं, इसलिए उनका वैसे ही प्रयोग किया गया है।' इन शब्द प्रयोगों से ज्ञात होता है कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध की रचना, मगध में जैन साघु विहार कर रहे थे, उसी समय में हुई या उसके आसपास में हुई । जैन साधुओं का बिहार मुख्यरूपेण बंगाल, बिहार आदि में होता था। ईसापूर्व तीसरी चौथी शताब्दी में घुतकेवली भइया हजारों साधुओं के साथ दक्षिण भारत में चले गए। ईसापूर्व तीसरी शताब्दी में नकेवली स्थूलभद्र के उत्तराधिकारी आर्य महानिरि और सुहस्ती मालवा में विहार करने लगे । ईसापूर्व दूसरी शताब्दी में मगध में मौर्यवंश का पतन हो गया। बृहद्रथ को मारकर उनके सेनानी पुष्यमित्र शुंग ने राज्य पर अधिकार कर लिया। पुष्यमित्र तथा शुंगवंश के शासनकाल में जैनों और बौद्धों को अपने मूल विहारक्षेत्र को बदलना पड़ा । विहारक्षेत्र परिवर्तन की भूमिका के संदर्भ में यह अनुमान किया जा सकता है कि सूत्रकृतांग के द्वितीय तस्कन्ध की रचना ईसापूर्व दूसरी शताब्दी के आसपास होनी चाहिए । रचनाशैली सूत्रकृतांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध पद्यशैली में लिखित है। सोलहवां अध्ययन गद्यशैली में लिखा हुआ प्रतीत होता है, किन्तु वास्तव में वह गद्यशैली में लिखित नहीं है । निर्युक्तिकार ने गाथा शब्द की मीमांसा करते हुए कुछ विकल्प प्रस्तुत किए हैं । उनमें लिखा है कि प्रस्तुत अध्ययन गेय है, वह गाथाछंद या सामुद्रछंद में लिखित है ।" १. सूत्रां द्वितीयस्तर वृत्ति पत्र १ इहानसर तस्कन्धे योऽर्थः समासतोऽमिहितः असावेवानेन भूतस्कन्धेन सोपपत्तिको व्यासेनाभिधीयते त एव विधयः सुसंगृहीता भवन्ति येषां समासव्यासाभ्यामभिधानमिति । यदि वा पूर्वश्रुतस्कन्धोक्त एवार्थोऽनेन दृष्टान्तद्वारेण सुखावगमार्थं प्रतिपाद्यत, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य श्रुतस्कन्धस्य सम्बन्धीनि सप्त महाध्ययनानि प्रतिपाद्यन्ते । २ (क) सूत्रकृतां १ / २ / ६ वृत्ति पत्र ४८ वाकस्मावित्ययं शब्दो मगधदेशे सर्वेणाप्यागोपासाङ्गनाविना संस्कृत एवोप्या इति । (२/७/१५ वृति पत्र १७३ अस्माकमित्येवम्मगधदेशे गोपालाङ्गनादिप्रसिद्धं संस्कृतमेवचार्यते तवापि तच्चारितमिति । ३. (क) सूत्रकृतांना १३१, १३२ मधुराभिधाणत्ता गालिबेति ॥ गाधीकता य अत्था अधवा सामुद्दएण छंवेणं । एएण होती गाधा एसो अण्णो वि पज्जाओ ॥ (ख) सूत्रकृतवृत्ति पत्र २७०, २०१ मधुरं श्रुतिपेशलमभिधानम् उच्चारणं यस्याः सा मधुराभिधानता, गाचाछन्दसोपनि यस्य प्राकृतस्य मधुरत्वादित्यभिप्रायः गीयते पठ्यते मधुराक्षरमवृष्या गायन्ति वा तामिति गाया यत एवमतस्तव कार गाथामिति तां ब्रुवते । णमिति वाक्यालङ्कारे एनां वा गाथामिति । अन्यथा वा निरुक्तिमधिकृत्याह - 'गाहीकया व' इत्यादि, 'गाथीकृताः' - पिण्डीकृता विक्षिप्ताः सन्त एकत्रमीलिता अर्था यस्यां सा गाथेति, अथवा सामुद्रेण छन्दसा वा निबद्धा सा चात्पुच्यते । Jain Education International ......... For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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