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________________ [२७] द्वितीय श्रुतस्कन्ध का बड़ा भाग गद्यशैली में लिखित है। वह विस्तृत शैलो में लिखा हुआ है । उसमें यत्र तत्र रहस्यवादी शैली के वाक्य उपन्यस्त हैं जहा पुग्वं तहा अवरं, जहा अवरं तहा पुवं । (सू० २/१/५४) एत्थ वि सिया, एत्थ वि जो सिया । (सू० २/१/६०) प्रस्तूत भाग में रूपक और दृष्टान्तों का भी समीचीन प्रयोग किया गया है। प्रथम अध्ययन में पुण्डरीक का रूपक बहुत ही सुन्दर है। दष्टान्तों का प्रयोग अनेक स्थानों पर उपलब्ध है। इससे संवाद और प्रश्नोत्तर शैली का प्रयोग किया गया है। संवादशैली का एक सुन्दर उदाहरण दूसरे अध्ययन में मिलता है।' प्रथम श्रतस्कन्ध का यमकीय अध्ययन यमक अलंकार में लिखित है। यह आगम ग्रन्थों की काव्यात्मक शैली का विरल उदाहरण है। परिचय की दृष्टि से उसके दो श्लोक यहां उद्धत हैं भूतेसु ण विरुज्झज्जा एस धम्मे बुसोमओ। वसीम जगं परिण्णाय अस्सि जीवियमावणा ।। भावणाजोगसुद्धप्पा जले णावा व आहिया । णावा व तीरसंपण्णा सम्वदुक्खा तिउति ॥ द्वितीय श्रुतस्कन्ध में सूत्र और चूलिका (परिशिष्ट) तथा सूत्र और वृत्ति-ये दोनों संलग्नरूप में मिलते हैं। इस सम्बन्ध में चूर्णिकार और वृत्तिकार के संकेत बहुत मूल्यवान् हैं । इनके आधार पर अन्य आगमों में भी इस पद्धति की सम्भावना की जा सकती है। यह आगमिक अध्ययन का व्यापक दृष्टिकोण है, जो सब आगमों के अध्ययन के लिए उपयोगी है। इससे तभयागम की दति स्पष्ट होती है । आगम के तीन प्रकार हैं- सूत्रागम, अर्थागम और तदुभयागम । इस तीसरे प्रकार में सूत्र और अर्थ दोनों साथ-साथ होते हैं। समीक्ष्यमाण सूत्र इसका श्रेष्ठ और स्पष्ट उदाहरण है। दूसरे श्रुतस्कन्ध का दूसरा अध्ययन 'क्रियास्थान' है। उसका विषय सत्रहवें सूत्र तक समाप्त हो जाता है। इस प्रकार दूसरा अध्ययन भी वहीं समाप्त हो जाता है । उससे आगे ६४ सूत्र और हैं। वे प्रस्तुत अध्ययन की चूलिका (परिशिष्ट) के रूप में हैं। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसका स्पष्ट उल्लेख किया है। स्वयं सत्रकार ने भी 'अदुत्तरं' शब्द के द्वारा उसकी सूचना दी है। व्याख्याग्रन्थों के अनुसार जैसे चिकित्साशास्त्र में मूलसंहिता में-श्लोकस्थान, निदान और शारीर चिकित्सा में जो प्रतिपादित नहीं है वह उत्तरसंहिता में प्रतिपादित है। रामायण आदि के भी जैसे उत्तर हैं, वैसे ही जो प्रस्तुत अध्ययन (क्रियास्थान) में प्रतिपादित नहीं है वह इस उत्तर भाग में प्रतिपादित है। इसलिए यह आचारचूला की भांति प्रस्तत अध्ययन का उत्तर भाग या चूलिका (परिशिष्ट) भाग है।' द्वितीयश्रुतस्कन्ध के दूसरे अध्ययन के १६ वें सूत्र की व्याख्या में चूणिकार ने सुत्र और वृत्ति का स्पष्ट विभाग प्रदर्शित किया है'सूचनात्सूत्रमितिकृत्वा एवं एताणि संखेवेण सुत्ताई वुत्ताई, एतेसि इवाणि सत्तेण चेव वित्ती भण्णति, जहा वेतालिए, चत्तारि विणयसमाधिट्टाणा उच्चारेतुं पच्छा एक्केक्कस्स विभासा, जहा वा उक्खित्तणाए संघाडेत्ति उच्चारेऊण पवाणि एक्केक्कस्स अज्झयणं वृच्चति, दिट्टिवाते सुत्ताणि भाणिऊण पच्छा सव्वो चेव दिट्ठिवातो, तेसि सुत्तपदाणं एतेण चेव वृत्तिर्भवति । दृत्ति के उपसंहार में चूणिकार ने लिखा है-उक्ता वृत्तिः । वृत्तिकार ने सूत्र और वृत्ति का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है, १. देखें-२/२/७७ । २. सूयगडो, १/१५/४,५। ३. (क) सूत्रकृतांगचूणि, पृ० ३५३ : अवुत्तरं च ण तेभ्यः क्रियास्यानेभ्यः अथ उत्तरं अदुत्तरं, यथा वैद्यसंहितानां उत्तरं जं मूलसंहितासु श्लोकस्थाननिदानशारीरचिकित्साकल्पेषु च यत् ययोपविष्टं च, यथोपदिष्टं सदुत्तरोऽभिधीयते, रामायणछन्दोपद्विततमावीणंपि उत्तरं अत्थि, एवमिहापि तेरससु किरियाढाणेसु जं वृत्तं अधम्मवक्कस्स अणुवसमपुवकं उत्तरं उवेति । (ख) सूत्रकृतांग द्वितो पश्रुतस्कन्धवृत्ति, पत्र ५६ : अस्मात्त्रयोदशक्रियास्थानप्रतिपादनादुत्तरं यवत्र न प्रतिपादितं, तबधुनोत्तरभूतेनानेन सूत्रसंवर्भण प्रतिपाद्यते, यथाऽऽचारे प्रथनश्रुतस्कन्धे यन्नाभिहितं तदुत्तरभूताभिश्चूलिकाभिः प्रतिपाद्यते; तथा चिकित्साशास्त्रे मूलसंहितायां श्लोकस्थाननिदानशारीरचिकित्सितकल्पसंज्ञकायां यन्नाभिहितं तदुत्तरेऽभिधीयते, एवमन्यत्रापि छंबश्चित्यादा बुत्तरसद्भावोऽवगन्तव्यः, तदिहापि पूर्वेण यन्नाभिहितं तदनेनोत्तरग्रन्थेन प्रतिपाद्यते इति । ४. सूत्रकृतांगचूणि, पृ० ३५६ ।। ५. वही, पृ० ३५७ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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