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[२५] में मिलता है। सूत्रकार ने उसका प्रयोग किया है। कठोपनिषद् में एकात्मवाद और नानात्मवाद का दृष्टान्तपूर्वक वर्णन है।' सूत्रकृतांग ११ का नौवां श्लोक उसके सन्दर्भ में पठनीय है । 'विष्णू नाणा हि दीसए' (सूत्रकृतांग १।१।६) का आधार 'एक रूपं बहुधा यः करोति'-कठोपनिषद् ५॥१२) रहा है।
सूत्रकार के सम्मुख गोशालक, संजयवेलट्ठिपुत्र, पकुधकात्यायन आदि श्रमण परम्परा के आचार्यों का साहित्य भी रहा है। प्रस्तुत आगम में प्रयुक्त शब्दों के आधार पर इसकी निश्चित सम्भावना की जा सकती है। बारहवें अध्ययन में 'वंझ' शब्द है। इसका आशय यह है कि पकुधकात्यायन के अकृततावाद के अनुसार सात काय वन्ध्य-कूटस्थ होते हैं। दीघनिकाय के सामञफलसुत्त में भी यही शब्द प्रयुक्त हुआ है। प्रस्तुत आगम में अनेक समीक्षणीय स्थल हैं। यहां उनकी ओर एक इंगित मात्र किया गया है। रचनाकार और रचनाकाल
पारंपरिकदृष्टि से यह सम्मत है कि द्वादशांगी की रचना गणधारों (भगवान् महावीर के ग्यारह प्रधान शिष्यों) ने की थी। इस सम्मति के अनुसार सूत्रकृतांग गणधरों की रचना है। किन्तु वर्तमान में कोई भी अंग अविकलरूप में प्राप्त नहीं है। आज जो भी प्राप्त है वह उत्तरकाल में संकलित है। संकलनकार के रूप में वर्तमान आगमों के रचनाकार देवधिगणी हैं।
प्रो० विंटरनीत्स का अभिमत है कि प्रथम श्रुतस्कन्ध प्राचीन है, उसकी तुलना में द्वितीय श्रुतस्कन्ध अर्वाचीन है। उसके अनुसार प्रथम श्रुतस्कन्ध एक व्यक्ति की रचना है। इसकी सम्भावना अधिक है कि वह किसी संग्राहक के द्वारा विभिन्न पद्यों और उपदेशों का संग्रह करतैयार किया हुआ संगृहीत ग्रन्थ है। दूसरा श्रुतस्कन्ध गद्य में लिखा हुआ है । वह अव्यवस्थित ढंग से एकत्र किए गए परिशिष्टों का समूह मात्र है। किन्तु भारतीय धामि सम्प्रदायों का जीवन-बोध कराने की दृष्टि से वह भी महत्त्वपूर्ण है।
प्रो० विटरनीत्स के इस अभिमत से सहमति प्रगट की जा सकती है कि प्रथम श्रुतस्कन्ध प्राचीन है और द्वितीय श्रुतस्कन्ध उसकी तुलना में अर्वाचीन है। भाषा, शब्द-प्रयोग और रचनाशैली की दृष्टि से आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की भांति सूत्रकृतांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध प्राचीन प्रतीत होता है । आचारांग का द्वितीय श्रुतस्कन्ध जैसे प्रथम श्रुतस्कन्ध की चूलिका (परिशिष्ट) के रूप में उत्तरकाल में उसके साथ जोड़ा गया है, वैसे ही सूत्रकृतांग का द्वितीय श्रुतस्कन्ध भी प्रथम श्रुतस्कन्ध की चूलिका (परिशिष्ट) के रूप में उत्तरकाल में उसके साथ जोड़ा गया है । आचारांग की चूलिका का 'आयारचूला' के रूप में स्पष्ट उल्लेख है, वैसे सूत्रकृतांग चूलिका का स्पष्ट उल्लेख नहीं है । किन्तु द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रथम श्रुतस्कन्ध का परिशिष्ट भाग है, इस तथ्य से नियुक्तिकार परिचित थे। महाध्ययन शब्द के द्वारा यह तथ्य ज्ञात होता है । चूर्णिकार ने नियुक्तिकार के आशय को थोड़ा स्पष्ट किया है। उन्होंने लिखा है कि प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह अध्ययन छोटे हैं और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अध्ययन बड़े हैं। नियुक्तिकार के आशय को शीलांकसूरी ने बहुत स्पष्ट किया है। उनके सष्टीकरण से यह प्रतीत होता है कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रथम श्रुतस्कन्ध का परिशिष्ट है। उन्होंने लिखा है-प्रथम श्रुतस्कन्ध में जो विषय संक्षेप में निरूपित किया गया है वही विषय द्वितीय श्रुतस्कन्ध में युक्तिपूर्वक विस्तार से निरूपित है। उनके मतानुसार संक्षेप और विस्तार-दोनों पद्धतियों द्वारा निरूपित विषय समीचीन रूपेण
१. सांख्यकारिका, २२ । २. सूयगडो, १।१।६५ : पहाणाई तहावरे । ३. कठोपनिषद् ५।६, १०, १२ । ४. दीघनिकाय २२॥ ५. History of Indian Literature, Part II, Page 441. ६. सूत्रकृतांगनियुक्ति गाथा, १४२, १४३ : णाम ठवणादविए खेत्ते काले तहेव भावे य ।
एसो खलु महतंमि निक्लेवो छविहो होति । णामं ठवणादविए खेत्ते कले तहेब भावे य ।
एसो खलु अज्झयणे निक्लेवो छविहो होति ।। ७. सूत्रकृतांगणि पृ० ३०८ : गाहासोलसगाई खुड्डलगाई, तहज्यणाई इमाई, महत्तरियाई महंति अज्झयणाई, अहवा महंति च ताई
अवझयणाइं च महज्झयणाई।
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