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सूयगडो १
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अध्ययन ६ : टिप्पण ६-6
चूर्णिकार 'समिक्ख दाए' पाठ मानकर, इसका अर्थ-समीक्षापूर्वक दिखाते हैं-किया है।' ६. शाश्वत......."धर्म (णितियं धम्म)
आचारांग ४।१ में अहिंसा को नित्य धर्म, शाश्वत धर्म माना है। किसी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का हनन नहीं करना, उन पर शासन नहीं करना, उन्हें दास नहीं बनाना, उन्हें परिताप नहीं देना, उनका प्राण-वियोजन नहीं करना-यह धर्म शुद्ध, नित्य ओर शाश्वत है।
चूर्णिकार ने 'णितियं' का अर्थ नित्य, सनातन किया है। नित्य, सनातन, शाश्वत-सभी एकार्थक हैं।' ७. निरूपण किया (आहु)
यह बहुवचन का प्रयोग है । प्राकृत में एकवचन के स्थान पर बहुवचन और बहुवचन के स्थान पर एकवचन का प्रयोग होता है। यहां कर्ता में एकवचन है, अतः क्रियापद भी एकवचन का ही होना चाहिए।
चुणिकार ने एकवचन के स्थान पर बहुवचन के त्रियापद के प्रयोग की समीचीनता बतलाते हुए लिखा है कि बहुवचन के क्रियापद का प्रयोग तीन स्थानों पर किया जा सकता है
० स्वयं के लिए। • गुरु या बड़े पुरुषों के लिए। • छन्द की अनुकूलता के लिए। चूर्णि के अनुसार दूसरा विकल्प यह है कि प्रस्तुत श्लोक के तीसरे चरण में 'के' शब्द बहुवचनवाची भी हो सकता है।'
किन्तु इससे प्रश्न का समाधान नहीं होता। गुरु के लिए बहुवचन का प्रयोग हो सकता है, पर वह कर्ता और क्रियादोनों में ही होना चाहिए, किसी एक में नहीं। 'के' बहुवचन का रूप भी है किन्तु 'से' 'के' यह बहुवचनान्त नहीं है। बहुवचनान्त प्रयोग होता है-'ते के' । इसलिए यही मानना उचित है कि यहां एकवचन के स्थान में बहुवचन का प्रयोग हुआ है।
श्लोक २: ८. ज्ञात (पुत्र) (नाय)
चूर्णिकार ने 'नाय' का कोई अर्थ नहीं किया है। वृत्तिकार ने ज्ञात का अर्थ-क्षत्रिय किया है।' ६. (कहं व गाणं ? कह दंसणं से ?)
चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-(१) भगवान् ने कैसे जाना? किस ज्ञान से जाना? (२) भगवान् ने कैसे देखा? किस दर्शन से देखा ?'
वृत्तिकार ने मुख्यरूप से इसका अर्थ इस प्रकार किया है-भगवान् महावीर ने ज्ञान कैसे प्राप्त किया ? भगवान् ने दर्शन कैसे प्राप्त किया ? १. चूर्णि, पृ० १४२ : सम्यग् ईक्षित्वा समीक्ष्य केवलज्ञानेन वाए बरिसति । २. आयारो, ४१ : से बेमि–जे अईया, जे य पड़प्पन्ना, जे य आगमेस्सा अरहंता भगवंतो ते सम्वे एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं
पण्णवेति, एवं परूवेंति-सवे पाणा सव्वे भूता सब्वे जीवा सम्वे सत्ता ण हंतव्वा, ण अज्जावेयव्वा, ण परिघेतग्वा,
ण परितावेयम्वा, ण उद्दवेयव्वा । ३. चूणि, पृ० १४२ : नितिकं नित्यं सनातनमित्यर्थः । ४. चूणि, पृ० १४२ : आहुरिति एके अनेकादेशाद् 'आत्मनि गुरुषु च बहुवचनम्' बन्धानुलोम्याद्वा । अथवा के इममाहुः ?, एकारोऽपि
हि बहुत्वे भवति यथा—के ते, एकत्वेऽपि यथा-के से । ५. वृत्ति, पत्र १४३ : ज्ञाता:-क्षत्रियाः । ६. चूणि, पृ० १४२ : कथं इति परिप्रश्ने । कथमसौ ज्ञातवान् ? केन वा ज्ञानेन ज्ञातवान् ? एवं दर्शनेऽपि कथं दृष्टवान् ? इति ।
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