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________________ टिप्पण: अध्ययन ६ श्लोक १ १. ब्राह्मणों (माहणा) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-श्रावक, ब्राह्मण ।' वृत्तिकार ने ब्रह्मचर्य आदि अनुष्ठानों में निरत व्यक्ति को माहण माना है। २. गृहस्थों (अगारिणो) चूर्णिकार ने 'अकारिणो' पाठ मानकर इसका अर्थ क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र किया है। वृत्तिकार ने 'अगारी' का अर्थ क्षत्रिय आदि किया है।" ३. परतीथिकों (परतित्थिया) चूर्णिकार ने चरक आदि को तथा वृत्तिकार ने शाक्य आदि को परतीथिक माना है।' ४. पूछा (पुच्छिसु) आर्य सुधर्मा ने अपनी बृहद् परिषद् में विभिन्न नरकों तथा वहां उत्पन्न होने वाले दुःखों का वर्णन किया। उस परिषद् में जम्बू आदि श्रमण, श्रावक, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा चरक आदि परतीथिक और देवता भी थे। नरकों का वर्णन सुनकर वे उद्विग्न हो गए । उन सब ने आर्य सुधर्मा से पूछा- भगवन् ! आप हमें ऐसा कोई उपाय बताएं जिससे कि हम इन नरकों में न जाएं।" वृत्तिकार ने प्रधान रूप में इस अर्थ को मान्यता देते हुए वैकल्पिक रूप में यह माना है कि जम्बूस्वामी ने सुधर्मा से कहा-भंते ! अनेक श्रमण, माहण आदि मुझे पूछते हैं कि वह कौन है जिसने संसार समुद्र से पार करने में समर्थ ऐसे धर्म का प्रतिपादन किया है।' ५. भलीभांति देखकर (साहुसमिक्खयाए) वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-यथावस्थित तत्त्व के निश्चय से, समभाव से । १. चूणि, पृ० १४२ : माहणाः श्रावकाः ब्राह्मणजातीया वा। २. वृत्ति, पत्र १४३ : ब्राह्मण ब्रह्मचर्याधनुष्ठाननिरताः । ३. चूणि, पृ० १४२ : अकारिणस्तु क्षत्रिय-विट्-शूद्राः । ४. वृत्ति, पत्र १४३ : अगारिणः क्षत्रियावयः। ५. (क) चूणि, पृ० १४२ : परतीर्थकाश्चरकादयः । (ख) वृत्ति, पत्र १४३ : शाक्यावयः परतीथिकाः । ६. चूणि, पृ० १४२ : एतान् नरकान् श्रुत्वा भगवदार्यसुधर्मसकाशात् तदुःखोद्विग्नमानसाः कथमेतान्न गच्छेयाम इतिते पार्षदा भगवन्त मार्यसुधर्माणं......." पृष्टयन्तः........."समणा-जम्बुनामादयः, जेसि भगवं ण दिट्ठो, विट्ठो व ण पुच्छितो, न य तग्गुणा यथार्थत: उपलब्धाः । माहणा:-श्रावका: ब्राह्मणजातीया वा । अकारिणस्तु-क्षत्रियविट्शूद्राः। परती थिकाश्चरकादयः चग्रहणाद् देवाः । ७. वृत्ति, पत्र १४३ : अनन्तरोत्ता बहुविधां नरकविभक्ति श्रुत्वा संसारादुद्विग्नमनसः केनेयं प्रतिपादितेत्येतत् सुधर्मस्वामिनम् अप्राक्षुः पृष्टवन्तः........ यदि वा जम्बूस्वामी सुधर्मस्वामिनमेवाह-यथा केनवंभूतो धर्मः संसारोत्तारणसमर्थः प्रति पादित इत्येतद्बहवो मां पृष्टवन्तः । क. वृत्ति, पत्र १४३ : साध्वी वासौ समीक्षा च साधुसमीक्षा-यथास्थिततत्त्वपरिच्छित्तिस्तया, यदिबा-साधुसमीक्षया-समतयो तवानिति । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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