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सूयगडो १
१००. चरिया में (चरिया )
चूर्णिकार ने इसका अर्थ - भिक्षु चर्या और वृत्तिकार ने भिक्षाचर्या आदि किया है। उत्तराध्ययन २।१८, १६ में नींवा 'चरिया' परीषह है । यहां 'चरिया' शब्द के द्वारा वही विवक्षित है ।
१०१. उपसर्गों से स्पृष्ट होने पर उन्हें सहन करे ( पुट्ठो तत्थऽहियासए)
यह रोग परीषह का सूचक है । उत्तराध्ययन २।३२, ३३ में सोलहवां रोग परीषह है। वहां भी यही पद प्राप्त होता है ।
श्लोक ३१ :
४१७
१०२. पीटने पर क्रोध न करे (हम्ममाणो ण कुप्पेज्जा)
यह तेरहवां 'वध' परीषह है । उत्तराध्ययन सूत्र २।२६ में 'हओ न संजले भिक्खु' ऐसा पाठ है ।
मुनि यष्टि, सृष्टि या डंडे से पीटे जाने पर भी कोध न करे ।'
१०३. गाली देने पर उत्तेजित न हो (बुच्चमाणो न संजले)
३. जब दूसरा उसकी निर्भर्त्सना करे ।
- इतना होने पर भी मुनि उत्तेजित न हो ।
यह बारहवां 'आक्रोश' परीषह है । उत्तराध्ययन सूत्र २।२४ में 'अक्कोसेज्ज परो भिक्खु, न तेसि पडिसंजले' - ऐसा पाठ है । दोनों का प्रतिपाद्य एक है ।
प्रस्तुत सूत्र की पूर्णि में 'माण' के तीन अर्थ किए गए हैं—
१. जब दूसरा उसकी बात न सुने ।
२. जब दूसरा उसकी निन्दा करे ।
अध्ययन टिप्पण १०० १०३
वृत्तिकार के अनुसार मुनि को कोई दुर्वचन कहे, गाली दे या तिरस्कार करे तो वह प्रतिकूल वचन न बोले । "
पूर्णिकार ने 'ज' (सं०] [संज्यले) का वर्ष इस प्रकार किया है जैसे अग्नि इंधन से प्रज्वलित होती है, वैसे ही मुनि क्रोध और मान से प्रज्वलित न हो। "
वृत्तिकार के अनुसार 'संजले' का अर्थ है - प्रतिकूल वचन न बोलना अथवा मन को किञ्चित् भी अन्यथा न करना । "
उत्तराध्ययन के चूर्णिकार ने २।२६ में प्रयुक्त 'संजले' का अर्थ रोबोद्गम या मनोदय किया है । उसका लक्षण बतलाते हुए उन्होंने एक श्लोक उड़त किया है। उद्धृत
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कंपति रोषाग्निः संतवच्च दीप्यतेऽनेन । तं प्रत्याक्रोशत्याहंति च मन्येत येन स मतः ॥
१. चूणि, पृ० १८२ : चरिया भिक्खुचरिया ।
२. वृत्ति, पत्र १८४ : चर्यायां भिक्षाविकायाम् ।
४. पूर्ण पृ० १०२ ५. वृति पत्र १०४ ६. चूर्ण, पृ० १८२ : ण संजलेदवि न क्रोध-मानाभ्यामिन्धनेनेवाग्निः संजले ।
३ वृत्ति, पत्र १८४ : 'हन्यमानो' यष्टिमुष्टिलकुटादिभिरपि हतश्च 'न कुप्येत्'-- न कोपवशगो भवेत् । मुयमाणो नाम असमान निमाणो वा पिवमानो वा । उच्यमानः' आयमानो निसान न प्रतीयं वदेत् ।
७. वृत्ति, पत्र १८४ : 'न संज्वलेत्' न प्रतीपं वदेत् न मनागपि मनोऽन्यथात्वं विदध्यात् । ८. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० ७२ ।
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